(पेरिस में रहने वाली जिनेट बर्तों पिछले साल जब भारत आयीं तो लाल बहादुर वर्मा की सलाह पर ग्वालियर आईं भी और ख़ूब घूमा भी। उसी दौरान उनसे वहां के स्त्रीवादी आंदोलनों, वामपंथी आंदोलनो ,देश- दुनिया के बारे में तमाम बाते हुईं। यह भी तय हुआ कि वे लगातार वहां के हालात बताती रहेंगी और हम यहां के… तो अभी फ़्रांस के अक्टूबर दिवस पर उनका मेल आया। आपसे उसका भावानुवाद शेयर कर रहा हूं)


लंबे समय से औरतों के आंदोलन में इतने लोग नहीं देखे गये -- 50000। पूरे फ़्रांस के लिहाज़ से यह कोई बडी संख्या नहीं है पर पिछली बार से काफ़ी अधिक। पूरे फ़्रांस से गाडियां आईं थीं-- १०३ संगठनों, पार्टियों और यूनियनों ने इस प्रदर्शन का आह्वान किया था।
औरतों के कल्याण में वृद्धि या फिर कम से उसकी रक्षा का नारा एक ऐसी चीज़ है जिस पर हर वामपंथी दल सहमत होता है। यही वह इकलौता कारण है कि इतने लोग इकट्ठा हुए थे। उस दिन कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार का नारा था कि '' सारी कम्युनिस्ट बिरादरी जैसे महिला अधिकारों के पक्ष मे एक आदमी''। पुरुषों की उपस्थिति को लेकर काफ़ी बहस थी। अंत में तय हुआ कि सबसे आगे नारीवादी नेत्रियां रहेंगी। मेरी दो दोस्तों का नाम मार्टिन है- एक तो है पूंजीवाद विरोधी पार्टी में और पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर चलने की समर्थक है तो दूसरी जो एक लेस्बिअन नारीवादी आंदोलन की सदस्य है, इसके बिल्कुल ख़िलाफ़!

बहसें हर जगह हैं। औरतों के चादर ओढने के अधिकार को लेकर नारीवादी आंदोलन दो खेमों में बंटा है। एक का मानना है कि परदे पर बैन हो तो दूसरी इसे औरतों के ऊपर छोडने की वक़ालत करती है। इस पर वामपंथी आंदोलन भी बंटा हुआ है, संसद में भी इसे लेकर बहस है । सेकुलरिज़्म को लेकर भी बहस है और वाम का एक धडा फ़िलीस्तीन के धार्मिक संगठनों का समर्थन इस आधार पर करता है कि वे साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड रहा है।
नारीवादी आन्दोलन अब जग रहा है क्योंकि प्रतियोगिता के दौर में औरतों के हालत बुरे हो रहे हैं। स्कूल और कालेज में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद औरतें पिछड़ रही हैं क्योंकि बच्चे पैदा कराने के लिए उन्हें काम छोड़ना पङता है और आज भी बच्चे पालने और घर चलाने काम अब भी उनके ही जिम्मे है। गरीब परिवारों में अस्सी प्रतिशत वे एकल परिवार हैं जिनमे सिर्फ़ औरते और बच्चे हैं। सरकार खर्च कम करने के नाम पर सामाजिक खर्चे काट रही है पर वह अमीरों पर टैक्स बढ़ाने को तैयार नही है। अकेले पेरिस में महिला कल्याण के चार केन्द्र बंद कर दिए गए। यहाँ मुफ्त अबार्शन होते थे। साथ ही दक्षिणपंथी ग्रुप भी इसका विरोध कर रहे हैं। कान्ट्रासेप्टिव पिल्स से सबसीडी हटा दी गयी है।
हमने इसका विरोध किया। हमारे नारे थे -- 'दुनिया की औरतों एक हो', 'पूंजीवाद हमे खा जाना चाहता है-हम इसे उखाड फ़ेंकेंगे', 'उठो इससे पहले की बहुत देर हो जाये'
प्रदर्शन के अंत में हमने अपने बैनर ओपेरा हाऊस पर टांग दिये। तीस साल पहले का वक़्त होता तो हम उसपर कब्ज़ा कर लेते … उम्मीद है कोई फिर वैसा करेगा! अफ़सोस हम न कर सके।
5 टिप्पणियां:
अशोक बहुत ही महत्वपूर्ण पोस्ट है यह। एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जैसी। ब्लाग लेखन ऎसी ही सार्थक पोस्टों से अपनी प्रासंगिकता कायम करेगा।
अच्छी खबर है, बहुत दिनों बाद देखने को मिली।
खबर वरदान है। विजय गौड़ जी से सहमत। ब्लॉग जगत को प्रासंगिकता दिलाने में उपयोगी।
खबर वरदान है। विजय गौड़ जी से सहमत। ब्लॉग जगत को प्रासंगिकता दिलाने में उपयोगी।
गरीब परिवारों में अस्सी प्रतिशत वे एकल परिवार हैं जिनमे सिर्फ़ औरते और बच्चे हैं। सरकार खर्च कम करने के नाम पर सामाजिक खर्चे काट रही है पर वह अमीरों पर टैक्स बढ़ाने को तैयार नही है। अकेले पेरिस में महिला कल्याण के चार केन्द्र बंद कर दिए गए। यहाँ मुफ्त अबार्शन होते थे। साथ ही दक्षिणपंथी ग्रुप भी इसका विरोध कर रहे हैं। कान्ट्रासेप्टिव पिल्स से सबसीडी हटा दी गयी है। oh from paris..........!
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