पूंजीवादी दुनिया का अगवा अमेरिका मंदी के मकड़जाल में फँसा हुआ है। मंदी की यह मार धीरे-धीरे पूरी दुनिया में अपने पैर पसार रही है। कुछ लोग इस आर्थिक संकट की तुलना 1930 की महामंदी से भी कर रहे हैं। 1930 के जैसी महामंदी जैसे हालात अभी नहीं बने हैं, लेकिन पूंजीवादी दुनिया में मची खलबली से साफ समझा जा सकता है कि हालात गम्भीर हैं। करोड़ों डालर के पैकजों के साथ अमेरिकी पूंजीवादी राज्य डूबते हुए पूंजीपतियों व बैंकों को बचाने के लिए आगा आया है। लेकिन जैसे-जैसे दवा की जा रही है, मर्ज़ बढ़ता ही जा रहा है। अमेरिका में आए इस आथिक संकट का परिणाम हाल ही में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में साफ नजर आया। राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बराक ओबामा को मिली जीत के लिए मुख्यत: सत्तारूड रिपब्लिकन पार्टी ओर बुश की नव उदारवाद की असफल नीतियों को जिम्मेदार माना जा रहा है जिनसे अमेरिकी अथव्यवस्था पर ये संकट आया। चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा द्वारा अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाए जाने, िशक्षा, स्वास्थय आदि में सरकार के दखल को बढ़ायें जाने की वकालत को उनके समाजवादी होने के रूप में भी प्रचारित किया गया। वैसे अमेरिकी लोकतन्त्र के इतिहास में पहली बार किसी अशवेत व्यक्ति के रा’ट्रपति बनना एक महत्वपूर्ण घटना है। इसके अमेरिकी समाज पर सामाजिक प्रभाव काफी गहरे होंगे। चुनाव परिणामों से ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि अमेरिकी समाज रंगभेद की समस्या से से पूरी तरह मुक्त हो गया है। सच तो यह है कि आर्थिक संकट की मार झेल रहे अमेरिकी समाज की आर्थिक समस्याओं ने रंगभेद की समस्या को फिलहाल किनारे कर दिया है। बराक ओबामा उसी पूंजीवादी राज्य के मुखिया बनेंगे जिसकी कमान फिलहाल जोर्ज बुश के हाथों में है। फर्क सिर्फ़ यह आ सकता है कि पूंजीवादी लूट को थोड़ा मानवीय चेहरा देने की नीतियां लायी जाऐं।
वर्तमान पूंजीवादी संकट की शुरूआत अमेरिका के रियल स्टेट मार्केट के बुलबले के फुटने से हुई। पहले तो बैंकों ने रियल स्टेट के क्षेत्र में भारी निवेश व मकान खरीदने के ऋण दिया। मकान खरीदने के लिए लोगों को सब प्राइम रेट (ऋण देने की निर्धारित ब्याज दर से कम पर पर ऋण उपलब्ध कराना) लोन उपलब्ध कराया गया। बैंकों ने लोगों को यह सब्जबाग दिखाए यह सबसे बेहतर निवेश है। लोगों को लगा कि किसी सम्पत्ति को किराए पर लेने से अच्छा है कि उस सम्पत्ति को खरीद कर उतनी ही रकम ब्याज के रूप में दे दी जाए। उनकी सोच थी कि जब तक वे लोन से मुक्त होंगे तब तक वो अपनी सम्पत्तियां दोगुनी कीमतों पर बेच देंगे। देखते ही देखते रियल स्टेट का कारोबार आसमान छुने लगा। हर कोई सम्पत्ति में निवेश करने लगा। सभी खरीदारी करने लगे लेकिन जब सम्पत्ति बेचने की बारी आई तो कोई खरीदार ही नहीं था। क्योंकि अब हर कोई अपनी सम्पत्ति बेचना चाहता था। परिणामस्वरूप सम्पत्तियों की कीमतें गिरने लगी। तीन सालों में सब प्राइम लोन की दरें 3 प्रतिशत से 8 प्रतिशत तक हो गयी जिससे लोगों के लिए लोन की किस्तें चुकाना असंभव हो गया। अब बैंकों ने धनवसूली के लिए संपत्तियां जब्त करना शुरू किया मगर फायदा तो दूर उन्हें मूल के भी लाले पड़ गये। देखते ही देखतें अमेरिकी पूंजी बाजार के बाद’ााह लेहमेन ब्रदस, मेरिल लिंच, मोर्गन स्टेनले, गोल्डमेन सैक्स और एमआइजे जैसे दिग्गज बैंकों का दम निकलने लगा। शेयर बाजार औंधे मुंह नीचे गिरने लगे। अमेरिकी सरकार डूबते हुए पूंजी बाजार को बचाने के लिए सात हजार करोड़ डालर का पैकेज लेकर आयी। लकिन रियल स्टेट के क्षेत्र में शुरू हुआ यह संकट अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में भी फैलने लगा। अमेरिका की नामी सुपरमाकेट चेन वालमार्ट में तकरीबन 90 प्रतिशत उत्पादों की कीमतों में जबरदस्त गिरावट हुइ है। परिणामस्वरूप कामगारों की छंटनी या उनके वेतन में कटौती का सिलसिला तेजी से जारी है। प्लास्टिक के डब्बे लिये छात्र ट्रैफिक सिग्नल पर ‘‘ हमें पैसे की सख्त जरूरत है ’’ लिखी तख्तियां लगाये चंदा मांगते नजर आ रहे हं।
पूंजीवाद के आर्थिक संकट का मजेदार पहलू यह है कि भौतिक वस्तुएं एवं उत्पाद बहुतायत में उपलब्ध रहते है , लेकिन लोग अभाव में जीते हैं। हाल ही में अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया कि मकानों की कीमत और किराया इतना अधिक है कि सिंगापुर में लोग अपनी कारों में सोने को विव’ा है। पूंजीवादी मुनाफे का तर्क सभी पूंजीपतियों को उसी क्षेत्र में उत्पादन व निवेश के लिए प्रोत्साहित करता है जिसमें मुनाफा ज्यादा हो। देखते-देखते ही बाजार में उत्पादों की भरमार हो जाती है, लेकिन इन उत्पादों को खरीदनें के लिए उतने खरीददार ही नहीं होते और अति-उत्पादन का संकट पैदा हो जाता है। बाजार में उत्पाद तो मौजूद रहते हैं लेकिन खरीददार गायब हो जाते हैं। अपने अति उत्पादन के संकट से निपटने के लिए कम्पनियां कामगरों के वेतन में कटौती या उनकी छंटनी करती हैं। मौजूदा आर्थिक मंदी से निपटने के लिए कम्पनियाँ या तो बड़े पैमाने पर अपने कर्मचारियों की छंटनी कर रही हैं या फिर उनके वेतन में कटौती कर रहीं हैं। पूंजीपति संकट से निकलने की कोशिश करते हैं लेकिन संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है। बेरोजगारी के कारण लोगों की क्रय “शक्ति और भी कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में पूंजीवादी राज्य बड़े-बड़े आर्थिक पैकजों के साथ पूंजीपतियों को बचाने के लिए आगे आता है। लेकिन आर्थिक मंदी के कारण जिन कामगारों को अपने रोजगारों से हाथ धोना पड़ता है, उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी से सरकारें साफ मुकर जाती हैं। हाल ही में भारत में जब एयरइंडिया ने अपने 1500 कर्मचारियों को निकलने की घोषणा की तब सरकार के उडड्यन मंत्री ने कहां कि यह कम्पनी के मालिक और उसके कर्मचारियों का मसला है सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इस बात को सप्ताहभर भी नहीं बीता था कि वहीं मंत्री विमानन कम्पनियों को संकट से बचाने के लिए उनके साथ मीटिंग करते है। लोकतंत्र और प्रजातंत्र की बात करने वाला पूंजीवाद वक्त आने पर अपना असली चेहरा दिखा ही देता है।
कर्मचारियों के विरोध व मीडिया में बड़ा मुदद् बन जाने के कारण फिलहाल जेट एयरवेज ने अपने कर्मचारियों की छटनी का आदेश वापस ले लिया है। अब कर्मचारियों के वेतन में अच्छी खासी कटौती की जा रही है। किंगफिशर भी अपने कर्मचारियों के वेतन संशोधित करने का फैसला कर चुकी है। टाटा मोटर्स अपने 700 अस्थायी कर्मचारियों को हटा चुकी है। इस साल की शुरूआत में आइ टी कम्पनियां यह काम पहले ही कर चुकी हैं। अक्टूबर माह में भारतीय उद्योगपतियों की संस्था एसोचैम ने ताजा सर्वेके आधार पर दावा किया है कि सुचना प्रौद्योगिकी, विमानन, सीमेन्ट, स्टील, वित्तीय सेवाएं, रियल्टी क्षेत्र और विनिर्माण क्षेत्र में कर्मचारियों पर बड़े पैमाने पर गाज गिरने की संभावना है। इनके 25 से 30 फीसदी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखया जा सकता है। एसोचैम द्वारा सच्चाई को उजागर करने पर देश के वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री से डाट खानी पड़ी और रिपोर्ट को वापस लेना पड़ा। आज दुनिया के कामगारों पर मंहगाई की मार के साथ-साथ बेरोजगारी की तलवार भी चल रही है। पूंजीवाद के सिद्धांतकार हमें यह बता रहें हैं कि कर्मचारियों की छंटनी एक छोटी सी बात है और कारोबार के नए नियमों के मुताबिक कंपनियों को समायोजन कि नाम पर अतिरिक्त कर्मचारियों की यह बढ़ी हुई चर्बी घटाने का हक है। उदारीकरण के इस दौर में छोटे-बड़े उद्योगों में कर्मचारियों के काम से निकाले जाने का कोई अधिकारिक आंकड़ा तो अभी उपलब्ध नहीं है लकिन तय है कि जब भी ऐसा कोई आंकड़ा आयेगा तो उसमें लाखों बेरोजगार चेहरे दिखाई देंगे। कामगारों को सिर्फ़ छोटी कंपनियों ने ही बाहर का रास्ता नहीं दिखाया है बल्कि बड़े औद्योगिक घरानों, जिन्होंने उदारीकरण की नीतियों का सबसे ज्यादा लाभ उठाया है, ने भी बेरोजगार बनाया है। कामगारों के एक तबके का बेरोजगार रहना पूंजीवादी मुनाफे को बढ़ाने के लिए जरूरी है ताकि मजदूरी की दर नियंत्रति की जा सके और श्रम को सस्तें दामों पर खरीदा जा सकें और मुनाफा ज्यादा से ज्यादा बढ़ सके।
पूंजीवादी व्यवस्था की मार केवल दुनिया के कामगारों के रोजगार पर ही नहीं पड़ रही है, बल्कि पूंजीवाद के खिलाफ लम्बे संघर्ष में जो अधिकार मजदूर वर्ग ने हासिल किए थे आज उनका कोई मतलब नहीं रह गया है। 1990 के बाद से जब उदारीकरण व निजीकरण के दौर शुरू हुआ है तब से काम की स्थितियां, काम के घंटें, वेतन, तथा रखें व निकालें जाने जैसे मामलों में मजदूरों के हितों के लिए बने कानून या तो समाप्त कर दिए गए हैं या फिर वे केवल कागजों पर सिमट कर रह गए हैं। दफतर में आने का समय तो तय है लेकिन जाने का नहीं। यदि हम पिछले वर्षों पर नजर दौड़ा कर देखें तो हर तरफ पूंजीवाद मजदूरों पर गाज बनकर गिरा है। इसके नतीजे में कभी हरियाणा में होंड़ा कर्मचारियों के सिर फुटते हैं, तो कभी सेज व अन्य परियोजनाओं का विरोध कर रहें किसानों व आदिवासियों पर गोली चलाई जाती है।
खुले तौर पर पूंजीवाद के वर्तमान नव उदारवादी दौर की शुरूआत 90 के दशक में हुई। 90 के दशक की शुरूआत में सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद ने अपनी अंतिम विजय की घोषणा कर दी। पूंजीवाद के सरगनाओं ने ‘‘इतिहास के अंत’’ और ‘‘ कोई विकल्प नहीं है ’’ का नारा दिया। उन्होंने समाजवाद की तात्कालिक असफलता को अपनी चिरजीविता मान लिया। 90 के दशक में शुरू की गई नव उदारवाद की आर्थिक नीतियों को सभी समस्याओं का हल बताया गया। सराकरों ने लोगों को शिक्षा, स्वास्थय, पानी, बिजली आदि उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से भी अपने हाथ खींच लिए, बल्कि इन सभी बुनियादी जरूरतों को भी पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने के लिए बाजार के हवाले कर दिया गया। यह बताया गया कि पूंजीवाद अब मानवता की सभी समस्याओं का हल कर देगा। लेकिन दो दशकों के अन्दर ही चारों ओर आर्थिक मंदी के काले बादल घिरने लगे हैं। एक बार फिर पूंजीवाद की अल्पजीविता दिखाई देने लगी है। पूंजीवाद के पास स्वयं अपने संकटों से निकलने का कोई स्थाई रास्ता नहीं है। पूंजीवादी मुनाफे व प्रतियोगिता के तर्कका अंतिम परिणाम है, करोड़ों-करोड़ कामगारों के श्रम से सृजित संसाधनों का मुटठ्ी भर पूंजीपतियों के हाथों में सिमटते जाना। एक अनुमान के अनुसार आज दुनिया के दो प्रतिशत लोगों के पास दुनिया की 51 प्रतिशत संपत्ति है। पूंजीवाद एक ओर तो कामगारों के श्रम से निर्मित उत्पादों को हड़प लेता है वहीं दूसरी ओर करोड़ों हाथो से उनकी सृजनशक्ति छीन लेता है, उन्हें बेरोजगार बना देता है। पूंजीवाद के पास अपने इस संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं है।
pradeep
2 टिप्पणियां:
mandi ke mar se nipatne ki punjeevadi hatash kosis vastav me punjeepatiyon ko bachane ki hi kvayad hai... unki is chinta me aam aadmi shamil nahi. karmcharion ki chatani ko campanion ka niji mamla bta kar plla jhadane vali sarkar aaj canpanion ko bachane liye janta ke paise ko camanion par nyochavar kane par aamada hai. aise me yah saval khada hota hai ke yadi janta ke paise ka istmal punjipation ko bachane me kiya jaa sakta hai to janta ko bachne ke liye punjipation ke paise ka istemal kyon na ho.....is vayvastha ka vikalp talashna hi hoga or smajvad uski pahli sidhi hai.
अर्थ-व्यवस्था का बने, स्वदेशी आधार.
अपने स्वभाव के जैसा,बने अर्थ का सार.
बने अर्थ का सार,धर्म-पालन का साधन.
काम सरल हों जीवन के,और मोक्ष का साधन.
कह साधक कवि,भारत विश्व-गुरु पद पाये.
स्वदेशी आधार अर्थ-व्यवस्था का आये.
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