31 अक्तूबर 2010

बेचारे गरीब नेता!

निर्धन देश के धनवान सांसद


संतोष खरे
केंद्र सरकार ने सांसदों का वेतन तीन गुना से भी अधिक कर दिया है अब प्रत्येक सांसद 50 हजार रुपये वेतन के रूप में तथा उनके कार्यालय और चुनाव क्षेत्र का भत्ता 45 हजार रूपये साथ ही 10 हजार (कर रहित) संसदीय क्षेत्र का भत्ता दिया जायेगा। उनकी पेंशन की राशि भी बढ़ाकर 20 हजार रुपये कर दी गई है इसके अलावा अन्य सुविधायें जैसे निजी वाहन खरीदने के लिये मिलने वाला ब्याज मुक्त कर्ज चार लाख रुपये तक, सड़क से यात्रा करने पर 16 रुपये प्रति किलोमीटर की दर से, सांसद महोदय की पत्नी या पति अब जितनी बार चाहें एक्जीक्यूटिव श्रेणी से नि:शुल्क विमान यात्रा कर सकते हैं। सांसदों की सुविधा के लिये सरकार दो रुपये में चार चपाती, ढ़ाई रुपये में सादा डोसा, दो रुपये मे भरपेट चावल (बासमती या अच्छे ब्रांड के) बारह रुपये पचास पैसे में चार पांच सब्जी, रायता, रसम और मिष्ठान के साथ मिलने वाली शाकाहारी थाली प्रतिदिन संसद के शानदार भोजनालय मे उपलब्ध रहती है। (भले ही 20 रुपये रोज पर गुजर करने वाली सामान्य जनता साधारण से ढाबे पर इस कीमत पर भोजन प्राप्त न कर सके ) एक अनुमान के अनुसार भारत सरकार प्रति सांसद प्रतिवर्ष लगभग 57 लाख रुपये खर्च करती है।

सांसदों के वेतन भत्ते बढऩे के पीछे सांसदों का कड़ा संघर्ष है जब संसद के केंद्रीय कक्ष में स्वघोषित लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री, गोपीनाथ मुंडे स्पीकर और मुलायम सिंह यादव संसदीय कार्यमंत्री बने तथा सदन स्थगित होने के बाद इन नेताओं ने अपनी मर्जी से सदन चलाना शुरू कर दिया और लगभग 70 मिनट तक ‘समानांतर संसद’ चलाई तब वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को मजबूर होकर आश्वासन देना पड़ा कि सांसदों के वेतनवृद्धि के मसले पर पुर्नविचार किया जायेगा तथा पुर्नविचार किया भी गया और दस हजार रुपये मासिक करमुक्त भत्ता स्वीकृत किया गया। यह कुछ उसी तरह हुआ जैसे किसी औद्योगिक संस्थान की ट्रेड यूनियन हड़ताल कर अपनी मांगें मनवा लेते हैं। यह बात अलग है कि सांसद लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंर्तगत निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं जबकि कोई भी सचिव या शासकीय कर्मचारी का निश्चित सेवाकाल होता है तथा सेवा में आने के पूर्व उन्हे साक्षात्कार और योग्यताओं से गुजरना होता है वे अपने सेवाकाल में कोई निजी व्यापार अथवा आय का साधन अर्जित नहीं कर सकते, जबकि सांसदों पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता। सांसद रहते हुये भी वे अपना निजी व्यवसाय/व्यापार कर सकते हैं और नं.2 की कमाई करने के स्रोतों की तो बात ही मत करिये। पैसे के बदले प्रश्र पूछने का घपला कोई बहुत पुराना नहीं है। ऐसी स्थिति में सांसद न रहने के बाद बीस हजार रूपया प्रतिमाह पेंशन लेने के औचित्य पर यदि देश की जनता प्रश्न चिन्ह लगाती है तो उसे गलत कैसे कहा जा सकता है!


लोकसभा में छद्म प्रधानमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि ने एक और मांग की थी कि उन्हें करमुक्त वेतन दिया जाना चाहिये किंतु उनकी मांग को स्वीकार नहीं किया गया। सरकार ने शरद यादव के इस सुझाव को भी स्वीकार किया कि सांसदों के वेतन भत्ते निर्धारित करने के लिये अलग से समिति का गठन किया जाना चाहिये, जिसमें सांसदों की कोई भूमिका न हो किंतु ऐसी समिति के गठन के पूर्व ही सरकार ने सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ा दिये। सरकार सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने के मामले में भरपूर दरियादिली दिखाती है पर उसकी यह ‘दरियादिली’ पता नही कहां चली जाती है जब वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई सलाह कि सरकार द्वारा खरीदे गए अनाज के गोदामों की उचित व्यवस्था के अभाव में सडऩे के निकट पहुंच गए लाखों टन अनाज को गरीबों को मुफ्त या कम दाम पर दिया जाना चाहिये, को स्वीकार नहीं करती।


इस लोकसभा में तीन सौ सांसद करोड़पति हैं। आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद राजागोपाल के पास 2004 के चुनाव में नौ करोड़ 60 लाख की संपत्ति थी जो अब एक अरब 22 करोड़ हो गई। हरियाणा के कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल की 12 करोड़ 12 लाख की संपत्ति एक अरब 31 करोड़ हो गई है। 2004 में राहुल गांधी के पास 45 लाख की संपत्ति थी, जो 2009 में चुने जाने पर दो करोड़ 32 लाख की हो गयी। सुरेश कलमाड़ी की तीन करोड़ 94 लाख की संपत्ति 12 करोड़ 85 लाख की हो गयी। भाजपा सांसद मेनका गांधी की संपत्ति छह करोड़ 62 लाख की संपत्ति 17 करोड़ 60 लाख रुपये हो गई। लालू प्रसाद यादव की 86 लाख 69 हजार की संपत्ति तीन करोड़ 17 लाख की हो गई। शरद यादव की तीन करोड़ 27 लाख की संपत्ति आठ करोड़ 72 लाख हो गयी। यह श्रृंखला बहुत लंबी है और संक्षेप में कहा जाये तो कांग्रेस के जो करोड़पति सासंद हैं उनमें कमलनाथ, कपिल सिब्बल, श्रीप्रकाश जायसवाल, अजहरूद्दीन, मिलिंद देवड़ा, जितेन प्रसाद, शशि थरूर, महावल मिश्र, शैलजा, प्रिया दत्त, अनु टंडन और कृष्णा तीरथ हैं। भाजपा के करोड़पति सांसद यशोधरा राजे सिंधिया, सुषमा स्वराज, मुरलीमनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू, जसवंत सिंह, दुष्यंत सिंह और वरुण गांधी, सपा के करोड़पतियों में मुलायम सिंह यादव, जया प्रदा, उषा वर्मा, रेवती रमण सिंह, ब्रजभूषण दास सिंह और नीरज शेखर प्रमुख है। बसपा के सांसदों में जगदीश सिंह राणा, तबस्समु बेगम, सुरेंद्र सिंह नागर, राजकुमारी चैहान तथा भीष्मशंकर तिवारी आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार जनता दल यूनाइटेड, एन.सी.पी., डी.एम.के., टी.डी.पी. और बीजू जनता दल के सांसदों की संख्या कम नहीं है। कहा जा सकता है कि सभी दलों के सांसद इस मामले में एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। यह भी मानना पड़ेगा कि वेतन और भत्तो की वृद्धि के मामले में सभी दलों के सांसदों में भारी एकता है। और इसी कारण इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों को छोड़ शायद ही कोई सांसद असहमति या विरोध व्यक्त करता हो।


संसद के इतिहास में ‘छद्म लोकसभा’ पहली बार देखने-सुनने को मिली है। 70 सांसदों ने कार्यवाही में हिस्सा लिया। सांसदों की वेतन वृद्धि विधेयक पर चर्चा हुई और स्वघोषित प्रधानमंत्री ने उसे खारिज किया। देश के सामान्य नागरिक यह समझने में असमर्थ हैं कि संवैधानिक ढंग से गठित लोकसभा का अस्तित्व होने के बाबजूद छद्म लोकसभा गठित करने और इस हास्यास्पद/अवैधानिक ‘नाटक’ का क्या औचित्य था? क्या यह सदन की अवमानना नहीं थी? बजाय इसके कि इस कार्यवाही की निंदा या उपेक्षा की जाये, इससे आतंकित होकर सरकार ने उनके भत्तों की राशि में वृद्धि कर दी। आश्चर्य है कि इस असंवैधानिक, अवैधानिक, आधारहीन और हास्यास्पद कार्यवाही का किसी ने विरोध नहीं किया, उल्टे उसे गंभीरता से लिया। यह ‘छद्म लोकसभा’ यदि ‘परंपरा’ की तरह शुरू हुई तो ‘वास्तविक लोकसभा’ की गरिमा कैसे बनी रहेगी? बाद में लालकृष्ण आडवानी और सुषमा स्वराज ने भले ही इस संबंध में गोपीनाथ मुंडे से जबाब-तलब किया पर यह ‘तलबी’ इस आधार पर अधिक थी कि मुंडे ने भाजपा को लालू-मुलायम के पीछे कैसे खड़ा कर दिया? उधर राज्यसभा में अरुण जेटली ने भाजपा सांसदों से कहा कि कोई भी सांसद वेतन की मांग नहीं उठायेगा। उन्होंने तो यह भी कहा कि यदि वे वेतन की राजनीति करने आये हैं तो बेहतर होगा कि कोई और काम कर लें। सांसदों की जिनमें आडवानी, सुषमा और जेटली भी सम्मिलित हैं, वेतन भत्तों के वृद्धि स्वीकृत होने के बाद अब भाजपा के र्शीष नेताओं के द्वारा की गई यह कार्यवाही हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और की तरह नहीं है क्या?



सांसदों की इस वेतन वृद्धि के कारण होने वाले दूरगामी प्रभावों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। उपरोक्त वेतन वृद्धि के तत्काल बाद किसी आयोग के सदस्यों ने यहां मांग की है कि उनको मिलने वाले पारिश्रमिक में भी वृद्धि होनी चाहिये। इस तरह की मांग उठाना अस्वाभाविक नहीं। यदि सांसदों की तीन गुने से अधिक वेतन वृद्धि हो सकती है तो औरों की क्यों नहीं? अब तो यह भी संभावना है कि सांसदों की देखा-देखी विधायकों, पंचायतों के सदस्य, नगरपालिकाओं के पार्षद, सहकारी समितियों के सदस्य तथा अन्य सरकारी, अद्र्धसरकारी या स्वायत्त संस्थाओं के सदस्य इसी तरह की मांग उठाने लगेंगे। दिल्ली में तो यह हो भी गया है। उस स्थिति में सरकार क्या करेगी? उस दशा में करो का बोझ बढ़ता जायेगा। निर्वाचित सदस्य वे चाहे सांसद, विधायक, पार्षद, पंचायतों के सदस्य आदि कोई भी हो, है तो जनप्रतिनिधि, जिनका मुख्य कार्य जनसेवा है। जनसेवा के साथ ऊंचा पारिश्रमिक कहां तक उचित कहा जा सकता है? जन सेवक कोई वेतनभोगी कर्मचारी में अंतर होता है। गांधी, नेहरू, शास्त्री के जमाने में इस तरह सरकारी धन की बंदरबांट कभी नहीं हुई। यही कारण है कि जब जनप्रतिनिधि स्वयं के लिये वेतन या पेंशन वृद्धि की मांग करते हैं या अधिक सुविधायें चाहते हैं और सरकार उन्हें स्वीकार करती है तो जनता प्रकट में भले ही कुछ न कहे पर उसके मन में उनके खिलाफ असंतोष उपजता है। जनता अपने स्तर पर यही कर सकती है कि अगले चुनाव मे ऐसे ‘लालची नेताओं’ को वोट न दे। पर बिडंबना यह है कि जहां लोकसभा में आधे से अधिक सांसद अपराधी या दागी हों और जो चुनाव जीतने की कला में माहिर हों उनसे देश की जनता किस तरह निपटेगी?



इन पंक्तियों के लेखक ने ‘समयांतर’ (अक्तूबर 2006) मे एक आलेख ‘कितने लाभ लेगे सांसद?’ के माध्यम से यह आशंका व्यक्त की थी कि ‘कानून के निर्माताओ के द्वारा स्वयं के लिये मनमाने ढ़ंग से वेतन या पेंशन बढ़ाने या अन्य सुविधाओ के लिये कानून बनाने की प्रक्रिया पर यदि न्यायालयों के द्वारा रोक नहीं लगाई गई तो इस शक्ति का दुरूपयोग होता रहेगा’………और यह सच्चाई अब सामने आ गई है। सरकार कानून बनाने की शक्तियों का खुला दुरुपयोग कर रही है। स्वंतत्रता के 63 वर्षों के बाद क्या इस देश के लोकतंत्र का यही अर्थ रह गया है?

2 टिप्‍पणियां:

honesty project democracy ने कहा…

अब वक्त आ गया है जब देश की जनता को एकजुट होकर इन देश के बेशर्म सांसदों को कानून और अपने अधिकारों का अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग के अपराध के लिए सरे आम फांसी दिए जाने के लिए आवाज उठाना चाहिए ..वैसे भी इन सांसदों का अगर ब्रेनमेपिंग और लाईडिटेक्टर टेस्ट कराया जाय तो इनमे से 99% चोर,लूटेरे और देश तथा समाज के गद्दार साबित होंगे ..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सोचने को बाध्य करता हुआ आलेख!