18 सितंबर 2011

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयन्ती पर व्याख्यान और परिचर्चा


शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की १०५वीं जयन्ती पर व्याख्यान और परिचर्चा
‘हाशिए का समाज और लोकतंत्र की सीमाएँ’


भगत सिंह भारतीय मुक्ति संग्राम में न केवल एक ऐसे जांबाज सिपाही की तरह सामने आते हैं जिसने दुश्मनों के सामने कभी घुटने नहीं टेके बल्कि एक ऐसे विचारवान क्रांतिकारी की तरह भी सामने आते हैं जिसने भारत के भविष्य के लिए एक ऐसा स्वप्न देखा था जिसमें एक शोषण-विहीन समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हो सके. उनमें  वर्तमान और भविष्य को देख-समझ पाने की जो अंतर्दृष्टि थी उसी के चलते अपने लेखों में उन्होंने शायद उस दौर में पहली बार जाति और धर्म जैसे मसलों के आजादी की लड़ाई के साथ आपसी रिश्तों की सटीक पहचान की थी और साथ ही यह भी कहा था कि ‘अगर गोरे अंग्रेजों के बाद यहाँ काले अंग्रेज आ गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आजादी का अर्थ व्यवस्था परिवर्तन है’. आजादी के इतने सालों बाद उनका जन्मदिन हमें आजादी के वही बचे हुए कार्यभार याद दिलाता है. अपना शासन चलाने के लिए हमने जो राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्थाएं चुनीं, आज तमाम तथ्यों की रौशनी में उन पर विचार कर उन शहीदों के सपनों के भारत को बनाने के लिए कोशिश करना ही उनके शहीदी दिवस या जयंतियों के आयोजन को अर्थपूर्ण बना सकता है. ‘दखल विचार मंच’ पिछले तमाम वर्षों से ऐसे ही सवालों से जूझने की कोशिश कर रहा है.

यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि एक तरफ तो पढ़ा-लिखा शहरी और देश के केन्द्र में रहने वाला तबका वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था से लाभान्वित हुआ है तो दूसरी तरफ उत्तर-पूर्वी भारत, झारखंड, छत्तीसगढ़ और अन्य आदिवासी इलाकों जैसे तमाम हाशिए के समाजों और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए तबके को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है. इरोम शर्मिला हों या हिमांशु कुमार, इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वालों के साथ जो व्यवहार हुआ है उसने लोकतंत्र की मूल भावना को कटघरे में खड़ा किया है. आखिर ‘समानता और भातृत्व’ की बात करने वाला आधुनिक लोकतंत्र देश के इन उत्पीड़ित समाजों को न्याय क्यों नहीं दे पा रहा? यह लोकतंत्र की सीमा है या फिर हमारे नेतृत्वकर्ताओं की?  इसका विकल्प क्या हो सकता है?

इन्हीं सवालों से जद्दोजेहद करने के लिए हमने भगत सिंह जयन्ती , 27 सितम्बर, दिन मंगलवार को पड़ाव स्थित कला वीथिका में शाम साढ़े पाँच बजे से एक व्याख्यान और परिचर्चा आयोजित की है जिसका विषय है - ‘हाशिए के समाज और लोकतंत्र की सीमाएँ’. कार्यक्रम के मुख्य वक्ता होंगे जाने-माने कवि ,विचारक और ‘पब्लिक एजेंडा’ के साहित्य संपादक श्री मदन कश्यप.
               
                      आइये मिलकर विचार करें क्योंकि लोकतंत्र सिर्फ नेताओं नहीं जनता का भी मसला है.
                              
                                                                                                                                 सादर अभिवादन सहित
संयोजन समिति, दखल विचार मंच