16 अगस्त 2011

अन्ना पर एक अलहदा विचार....


(मोहन श्रोत्रिय के फेसबुक वाल से यह संक्षिप्त नोट इस उन्माद के माहौल में सार्थक हस्तक्षेप करता है)



क्या अन्ना सचमुच इस देश की समूची सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करते हैं? भ्रष्टाचार है देश में, और भरपूर है. भयावह रूप धारण कर चुका है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं, और न हो सकती हैं. पर जन लोकपाल की नियुक्ति भर से यह समस्या समूल नष्ट कैसे हो सकती है?जन लोकपाल को रामबाण औषधि के रूप में पेश करना ही यह बताता है कि अन्ना और उनकी टीम को समस्या के निराकरण-निवारण के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है. भ्रष्टाचार की जड़ें पूंजीवादी व्यवस्था में गहरे तक जा धंसी है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए अन्ना और उनकी टीम के पास सामान ही क्या है? 

व्यवस्था परिवर्तन का संबंध है उत्पादन-संबंधों से. जब तक इस देश की मजदूर-किसान की समस्याएं इसके घेरे में नहीं आएंगी ,और उनकी भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी तब तक व्यवस्था परिवर्तन की बात शेख चिल्ली के सपने से ज़्यादा कुछ नहीं हो सकती. दुनिया भर की सामाजिक क्रांतियों के इतिहास पर नज़र डाल लेना हमारे लिए मददगार साबित हो सकता है. सोचें. विचार करें, उन्हें साझा करें. गुस्से में नहीं, ठंडे दिमाग से. इन दिनों देखा जा रहा है बात का जवाब गाली से दिया जारहा है. फ़ेस बुक पर भी. इससे बात आगे नहीं बढ़ती. असहमतियों की अभिव्यक्ति के और भी तरीके हैं. अपनी भाषा बहुत समृद्ध है, कुछ भी कह पाने के लिए.

1 टिप्पणी:

निशांत मिश्र - Nishant Mishra ने कहा…

आप सही कह रहे हैं. मैं पूंजीवाद का कट्टर आलोचक नहीं हूँ पर यह मानता हूँ कि धन का लोभ हर बुराई और अव्यवस्था के जड़ में है. वर्ग-संघर्ष और जातीय असमानता के मूल में भी यही है... यद्यपि हम भारत के इतिहास में जाकर बहुत कुछ खोज सकते हैं जो हमारी वर्तमान दशा की ओर इंगित करता है.
देश के पचास करोड़ से भी ज्यादा लोग... उनके पास कुछ भी नहीं है. आत्मसम्मान भी नहीं है. उनकी दशा सुधारने की ज़रुरत है. किसानों और मजदूरों के हित में कार्य करने की ज़रुरत है. शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोज़गार के लिए व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन ज़रूरी हैं. यह खेदसहित ही कहना पड़ता है कि कोरे समाजवाद से भी यह ध्येय प्राप्त नहीं होने वाला. इसके लिए धन के वितरण में व्याप्त घोर असमानता को दूर करना ही होगा. यह समाजवाद और पूंजीवाद के स्स्मंवय से होगा. चंद रईस करोड़ों की गाड़ियों में गरीबों को कुचलते रहें और ज़मानत पर रिहा होते रहें इसे बदलना होगा. किसी को अपने पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है, यह हमारे समाज के लिए कलंकित करनेवाली बात है! इसीलिए आजादी के साथ साल बाद भी बहुत से लोग अंग्रेजो के जाने को दुखद बताते हैं. सच ही बहुतों का मानना है कि हमें असली आजादी नहीं मिली.