संदेश और चेतावनियां
- रामशरण जोशी
उदयपुर से करीब 130 कि.मी. के फासले पर कोटड़ा आदिवासी बाहुल्य तहसील है। इसे आदिवासी क्षेत्रों में गुजरात का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। करीब 30-32 वर्ष बाद फरवरी में इस तहसील की पुनर्यात्रा का मौका मिला। इस संक्षिप्त यात्रा के आरंभ में कोटड़ा के वर्तमान परिदृश्य पर एक मार्के की टिप्पणी सुनने को मिली। क्षेत्र के एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना था,'कोटड़ा में जो थोड़ा-बहुत विकास दिखाई दे रहा है, यह भय का परिणाम है। मेरी उत्सुकता थी, 'वो कैसे? किस प्रकार का भय? उसका सहज उत्तर था, 'जिले की नौकरशाही नक्सलवादियों-माओवादियों से आतंकित है। इसे आशंका है कि यदि इस पिछड़ी तहसील में ईमानदारी के साथ विकास-कार्य नहीं किया गया तो इस इलाके में भी लघु रूप में झारखंड-छत्तीसगढ़ पनप सकते हैं। यह संक्षिप्त कथन कई संदेशों और चेतावनियों को ध्वनित करता है।
कोटड़ा दक्षिण राजस्थान की सबसे पिछड़ी तहसील है। जंगलों, पहाड़ों और पिछड़ेपन से घिरी। कहते हैं 1857 के असफल विद्रोह के पश्चात विद्रोही वीर तात्या टोपे के साथियों ने इस क्षेत्र में शरण ली थी। अंग्रेजों के विरुद्ध थोड़ी-बहुत गुरिल्ला कार्रवाइयां भी चलती रही थीं। यह इलाका अकाल और भूख की मार सहता रहा है। आज इसका नक्शा बदला-बदला दिखाई दे रहा है।
1978 में कोटड़ा पहुंचना जंग जीतने के समान था। जिला मुख्यालय उदयपुर से तहसील मुख्यालय कोटड़ा तक की दूरी तय करने में चार-पांच घंटे लग जाया करते थे। संकरी ऊबड़-खाबड़ सड़क पर इक्की-दुक्की बसें चला करती थीं, और वो भी कमर तोड़। आज न वैसी सड़कें हैं, न हिंडोला बसें। राष्ट्रीय मार्ग-76 के बन जाने से यह यात्रा डेढ़-दो घंटों में सिमट गई है। छह लेन है यह मार्ग। उदयपुर से 50-60 कि.मी. फासले पर देवला पड़ता है। वहां से कोटड़ा के लिए असली सफर शुरू होता है। अब यह मार्ग भी चौड़ा और डामर युक्त है जिस पर लग्जरी बसें, कारें, बड़ी जीपें, मोटर बाइक जैसे वाहन आपके स्थाई सहयात्री बन गए हैं। अब यह मार्ग उपभोक्ताओं के लिए है, न कि पैदलचियों, गाड़ीवानों, साइकिल सवारों और वनवासियों के लिए।
अब पहाड़ नंगे दिखाई दे रहे हैं। उनकी पीठ पर उभरी छिलाइयां उपभोक्ता सभ्यता की हिंसक भूख की कहानियां कह रही हैं। कभी इन पहाड़ों पर हरियाली छितराई हुई थी। पर अब 'जल-जंगल-जमीन के लुटेरों ने इसे पीड़ा से भर दिया है। 'आज ने 'बीते कल को गति से तो समृद्ध किया है, लेकिन इसका काफी कुछ हर भी लिया है ताकि 'आने वाला कल भौतिक रूप से समृद्धतर हो सके। फिर यह अहसास उभरता है कि कोटड़ा—झाड़ोल के जन-जल-जंगल-जमीन 'कल से कल तक की यात्रा से गुजर रहे हैं; इस संक्रांति काल की बिवाइयों से मुक्ति नहीं; ये अपरिहार्य हैं। फिर यह अहसास आपको 'विस्तार से जोड़ देता है। इस विस्तार में दंतेवाड़ा भी समाया हुआ है और झारखंड भी। एक पल में मैंने उन तमाम आदिवासी अंचलों की यात्रा कर डाली जहां आधुनिक राज्य ने कारपोरेट घरानों को जन-जल-जंगल-जमीन को रौंदने की छूट दे दी है या देने की प्रक्रिया में है। विकास अपरिहार्य है, पर इसका मूल्य कौन चुकाए? विकास का रूप कैसा हो? ये प्रश्न तो अभी अनुत्तरित हैं।
इन प्रश्नों के बीच एक सुखद अहसास भी होता है। मैं देख रहा हूं स्कूली पोशाक में बच्चे-बच्चियां टापरों से निकल रहे; हल्के बस्ते हवा में उड़ रहे हैं। यह दृश्य शृंखला का रूप ले लेता है और ताजा 'उपलब्धि की मेंट्री रास्ते भर करता है। 'उपलब्धि इसलिए कि सातवें दशक के अंतिम पहर में ऐसा दृश्य दुर्लभ था। बच्चे थे, पर नंग-धड़ंग। अपवाद स्वरूप ही किसी बच्चे को स्कूली पोशाक में देखा होगा। टापरा में टाबर (बच्चे) थे, पर स्कूल गुम था। आज टापरा हैं, टाबर हैं और स्कूल हैं। स्कूल जाती टोलियों में लड़कों के साथ लड़कियां भी शामिल हैं। भीलों में लड़कियों का स्कूल जाना किसी ऐतिहासिक यात्रा से कम नहीं है।
उदयपुर स्थित स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ) 'आस्था के निमंत्रण पर कोटड़ा जाना हो रहा है। आदिवासी विकास मंच द्वारा आयोजित 'आदिवासी वार्षिक सम्मेलन में शामिल होना है। इस निमंत्रण के पीछे भी एक कहानी है। आस्था के कर्ताधर्ता भंवर सिंह और उनके साथियों का अनुरोध था कि इस वर्ष आदिवासी सम्मेलन को संबोधित करूं। इसकी वजह यह थी कि मैं इस क्षेत्र के आदिवासियों के 'चेतना निर्माण और बंधुआ मुक्ति कार्यक्रम से जुड़ा रहा हूं। यहीं मैंने बंधक श्रमिक शिविर में अपनी चर्चित चेतना निर्माण एक्सरसाइज—'आओ शिकार करें, आओ नया गांव बसाएं को ठेठ देसी उपकरणों व प्रतीकों के माध्यम से विकसित किया था। भंवर सिंह और उनके साथियों ने बताया कि उन्होंने भीलों में जागृति पैदा करने के लिए इस एक्सरसाइज का खूब प्रयोग किया है। इस खेल को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी खिलाया गया है। (विस्तार के लिए देखें—आदिवासी समाज और शिक्षा; ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली)
क्या कभी मैं कल्पना कर सकता था कि कोटड़ा के मार्ग में मोबाइल टॉवर होंगे, टीवी टॉवर होगा; कोटड़ा कस्बे की दुकानों व घरों में टीवी सेटों से चिपके हुए लोग मिलेंगे; भीलों के कानों से मोबाइल सटे होंगे; भीलनियां ठेठ देसी अंदाज व बोली में बतिया रही होंगी; जगह-जगह रेस्तरां-कम-बीयर बार (स्थानीय लोग व्यंग्य में इसे 'वसुंधरा प्याऊ कहते हैं क्योंकि वसुंधरा राजे के कार्यकाल 2003-8 में देशी-अंग्रेजी शराब के बार खूब खुले थे) उग आए होंगे; बिलायती बीयर देसी बीयर (महुआ) को डकार जाएगी; सरकारी दफ्तरों-अमलों का जाल बिछा होगा; एन.जी.ओ. की संस्कृति कोटड़ा जीवन पर अमरबेल बन फैली मिलेगी।
कोटड़ा के लिए रवाना होने से पहले उदयपुर के आस्था ऑफिस में समन्वय निदेशक भंवर सिंह से एन.जी.ओ. के रोल और कोटड़ा-कायाकल्प को लेकर लंबी चर्चा हुई थी। आस्था के संस्थापक स्व. ओम श्रीवास्तव, भंवर सिंह, आर.डी.व्यास तथा उनके कुछ अन्य साथी कोटड़ा में कार्य आरंभ करने से पहले प्रसिद्ध एन.जी.ओ. 'सेवा-मंदिर से संबद्ध थे। लेकिन मतभेद के कारण 'आस्था की स्थापना हुई थी। वास्तव में यह मतभेद एक बड़े विमर्श का आयाम लिए हुए था। मुद्दा यह था कि एन.जी.ओ. का वैचारिक व कार्य चरित्र कैसा होना चाहिए? क्या एन.जी.ओ. को यथास्थितिवादी होना चाहिए या यथास्थिति विरोधी व परिवर्तनवादी? क्या एन.जी.ओ. को प्रतिवाद व प्रतिरोध की शक्ति से लैस रहना चाहिए या अनुनय-विनय-आवेदन-समर्पणवादी होना चाहिए? क्या
एन.जी.ओ. का कार्य निर्धारित विकास तक सीमित रहे या विकास प्रक्रिया में इसे हस्तक्षेप भी करना चाहिए?
इन सवालों से मुठभेड़ के दौरान यह बात खुलकर उभरी कि अधिकांश एन.जी.ओ. यथास्थितिवादी, औपचारिकतावादी, व्यवस्था सम्मत विकासवादी, हस्तक्षेप विरोधी और सुविधावादी होते हैं। इनका अपना अलग समानांतर सत्तातंत्र होता है। यह किसी सरकारी नौकरशाही से कम नहीं होता है। इसके पदाधिकारियों का अपना एक 'ग्लैमर जगत होता है। वे अपने ग्लैमर व सुविधा तंत्र को बनाए रखने के लिए खतरों-संकटों से पलायन करते रहते हैं और समझौतावादी बनते चले जाते हैं। ओम और उनके साथियों को इस कार्य शैली से असहमति थी...और जिसका परिणाम हस्तक्षेप सफल आस्था के जन्म के रूप में निकला।
चर्चा के दौरान भंवर सिंह ने बतलाया कि उन्होंने ग्रास रूट्स पर हस्तक्षेप कितना और किस प्रकार सफल हो सकता है, इसके लिए कोटड़ा को 'परीक्षण स्थल बनाया। पहले इस क्षेत्र की समस्याओं का अध्ययन किया ;अंतर्विरोधों को चिन्हित किया; संघर्ष की रणनीति तैयार की; लोगो को संगठित किया व चेतना संपन्न बनाया; जल-जंगल-जमीन के मुद्दों पर आंदोलन हुए; सफलताएं भी मिलीं और नाकामियां भी। आस्था के नेतृत्व में कोटड़ा में ही नहीं, दक्षिण राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी आंदोलन चले। आंदोलन का सिलसिला 1995 से शुरू हुआ तो आज तक चल रहा है। विगत 15 वर्षों में उदयपुर डिवीजन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगो के शोषण, उत्पीडऩ, अन्याय व अत्याचार, सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को लेकर बहु-आयामी संघर्ष के नियमित प्रयोग किए गए हैं।
गौरतलब यह भी है कि संघर्षों के नेतृत्व के लिए इस जनजाति के लोगों को ही तैयार किया गया। भंवर सिंह का मत था कि बाहर से आरोपित नेतृत्व की अंतर्निहित सीमाएं होती हैं। वह एक सीमा से अधिक प्रभावी व उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता। बेहतर तो यही है कि भुक्तभोगी समाज से ही नेतृत्व पैदा हो। वही आंदोलन का परचम थामे। फिर से एन.जी.ओ. के कार्य-चरित्र की ओर लौटते हैं। भंवर सिंह के इस मत से किसे असहमति हो सकती है कि इस तरह की संस्थाएं मूलत: 'उफनते दूध में ठंडे पानी की बूंद की भूमिका निभाती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से इसे 'अंतर्विरोधों का डिफ्यूजन ' कहा जाता है। अर्थात् किसी समस्या या टकराव के वैज्ञानिक समाधान के बजाए उसका अधबीच में तात्कालिक हल निकालना। इससे पहले कि समस्या यथास्थिति के लिए चुनौती बने, उसके समाधान की तार्किक परिणति से उसे भटका देना। डिफ्यूजन की शैली शासक वर्ग को काफी रास आती है। स्वयं सेवी संस्थाएं शासक वर्ग के लिए एक प्रकार से अग्रिम पंक्ति के 'सॉफ्ट वेपन का रोल अदा करती हैं। इसका लाभ राष्ट्रीय और वैश्विक शासक वर्गों को मिलता भी है।
यह अकारण नहीं है कि तीसरी दुनिया में सक्रिय लाखों एन.जी.ओ. को यूरो-अमेरिकी राष्ट्रों से भरपूर मात्रा में धन मिलता है। भारत के सभी क्षेत्रों में आज एन.जी.ओ. का नेटवर्क मौजूद है। जहां इन्हें सरकार से अनुदान मिलता है, वहीं अमीर देशों में स्थित डोनर एजेंसियों से विभिन्न रूपों में फंड भी प्राप्त होते हैं। ऐसी भी संस्थाएं हैं जो सिर्फ विदेशी धन पर ही जिंदा हैं। वे सरकारी धन लेना पसंद नहीं करती हैं। पिछले कुछ वर्षों से इन संस्थाओं को भारतीय कारपोरेट हाउसों से भी धन प्राप्त होने लगा है।
इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली को लेकर विवाद भी उठे हैं। इनके माध्यम से विदेशी शक्तियां पिछड़े देशों के 'सोशल कल्चरल-पॉलीटिकल डेटा हासिल करती हैं। इन डेटा में सामाजिक तनाव, धार्मिक व जातिगत टकराव, जनजाति अस्मिता उभार, राजनीतिक असंतोष, आर्थिक विषमता, लोगों की क्रय-विक्रय क्षमता, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति दृष्टिकोण जैसे बेशुमार विषय शामिल हैं। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि वैश्विक पूंजी की एक लॉबी जहां बड़े बांधों के निर्माण का समर्थन करती है तो दूसरी लॉबी उन संस्थाओं को धन देती है जो बड़े बांधों के निर्माण के विरुद्ध आंदोलनरत हैं। सारांश यह है कि एन.जी.ओ. 'गैर-सैन्य सामरिक रणनीति का महत्वपूर्ण अंग है। यह भी सही है कि जेनुइन स्वयं सेवी संस्थाएं सकारात्मक भूमिका भी निभाती हैं। समाज की समझ को पैना करती हैं। यह सच भी है कि एन.जी.ओ. को देश की वर्तमान व्यवस्था द्वारा स्वीकृत दायरे के अंतर्गत ही अपनी कार्रवाइयां करनी होती हैं। राज्य की एन.जी.ओ. तंत्र से अपेक्षा रहती है कि यह राजनीति से स्वयं को दूर रखेगा और रचनात्मक कार्यों के माध्यम से विकास एवं परिवर्तन की गतिविधियां संचालित करेगा। वह ऐसी विचारधारा और कार्यों से दूर रहेगा जो कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीतिक अस्थिरता व सामाजिक असंतोष का आधार बन सकती हैं।
जाहिर है कोई भी एन.जी.ओ. राज्य का कोपभाजन बनना नहीं चाहेगा। यदि वह ऐसा करता है तो उसके आर्थिक स्रोत (देशी व विदेशी) प्रभावित हो सकते हैं। अत: तयशुदा दायरे के भीतर रह कर ही एन.जी.ओ. काम करते हैं। जब तक वे ऐसा करते हैं देश का शासक वर्ग निश्ंिचत रहता है। जब वे अपनी सीमा लांघने लगते हैं
तब इस वर्ग को बेचैनी होती है। जाहिर है जो रेडिकल एन.जी.ओ. होते हैं वे शासक वर्ग की सीमा को तोड़ेंगे भी। उनकी कोशिश रहेगी राज्य के चरित्र के रेडिकल बदलाव की, एक समतावादी व्यवस्था व परिवेश के निर्माण की। वे अपने संघर्ष, अपनी गतिविधियों को उस छोर तक पहुंचा भी देते हैं जहां से रेडिकल राजनीति की यात्रा शुरू होती है। यह व्यापक आयाम वाली यात्रा होती है। बुनियादी मुद्दा यह है कि एन.जी.ओ. को राज्य व्यवस्था के 'अनौपचारिक अंगÓ के रूप में ही क्यों काम करना चाहिए? जब एन.जी.ओ. जल-जंगल-जमीन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, स्त्री सशक्तिकरण, रोजी-रोटी अधिकार, असंगठित श्रमिक, बाल श्रमिक, न्यूनतम मजदूरी, मानव अधिकार, दलित व आदिवासी सशक्ति-करण, भूमि सुधार, बहुराष्ट्रीय निगमों का विरोध, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, सांप्रदायिकता विरोधी अभियान, फासीवाद विरोधी अभियान, जैसे सरोकार वाले क्षेत्रों से जुड़ेगा तो उसे इन व्याधियों के कारणों की गहराई में उतरना ही होगा। उसे 'कारण और प्रभावÓ के अंतर्संबंधों को समझना ही पड़ेगा। किसानों की आत्महत्या के मूल कारणों को समझे बगैर कोई एन.जी.ओ. अपने काम के साथ कैसे न्याय कर सकता है? जल-जंगल-जमीन की लुटाई कौन कर रहा है?, इससे किसे फायदा पहुंच रहा है?, खनिज संपदा के अवैध दोहन को किसका संरक्षण प्राप्त है?, इन सवालों से एन.जी.ओ. को टकराना ही पड़ेगा। जब वह इनसे टकराएगा तब सत्ता प्रतिष्ठान के छोटे-बड़े कारिंदों से मुठभेड़ें अपरिहार्य हैं। ऐसा करने से एन.जी.ओ. को अपने जन सरोकारों के साथ न्याय करने का सुखद संतोष जरूर प्राप्त होगा। राज्य का गुस्सा उस पर नहीं टूटेगा, इससे इंकार नहीं है। लेकिन किसी स्तर पर वह बदलाव का वाहक बनेगा, क्या यह कम है?
जब इस अनौपचारिक संवाद की गहमा-गहमी से ध्यान छिटक कर सामने की तरफ गया तो देखा मैदान पर आदिवासी परिधानों का बसंत उतर आया है। औरतों ने मरदों को तादाद में मात दे रखी है। इन औरतों का उत्साह देखते ही बनता है। मैं अपनी पहली यात्रा की स्मृतियों की आहट सुन रहा हूं। 32 वर्ष पहले इनकी काया कपड़ों से इतनी लकदक नहीं हुआ करती थी। तन पर फटे-पुराने कपड़े रहा करते थे। औरतों में इतना चमक धमक नहीं था। उभरते बाजार का प्रभाव साफ झलकता है। मरदों की देह-भाषा भी बाजार-प्रभावों की गवाही है। युवकों की कलाइयों पर घडिय़ां हैं। पहले इनकी काया पर परंपरागत गोदन प्रमुखता से हुआ करते थे। अब रागदरबारी के छैलाओं की झलक देखी जा सकती है। शहरी बनने की होड़ में वे शामिल दिखाई देते हैं। आइए, इस मानवता को और समीप से देखते हैं। इस दृश्य के नेपथ्य में भी झांकते हैं। क्या यथार्थ इतना ही सुंदर-सफल-शाइनिंग है, इसे भी तो समझ लें। कोटड़ा बाजार से इस सम्मेलन-स्थल की ओर आ रहा था, तब एक भफल बालक टकराया। मेरे साथ उदयपुर से प्रकाशित समता संदेश के संपादक हिम्मत सेठ भी थे। बालक की आयु 10-12 वर्ष की रही होगी। वह कोटड़ा तहसफल के किसी गांव का था। सिर पर बोझ था, सामान की गठरी रखी हुई थी। नंगे पांव था। आधा जिस्म लगभग उघड़ा हुआ। आंखें धंसने को तैयार थीं। हमसे रहा नहीं गया। चलते-चलते कुछ पूछ ही लिया। उसने भयमिश्रित भाव से अपनी छोटी-मोटी कहानी यूं रखी, अपनी बोली मेें : ''मेरा नाम रमेश है। मैं यहां एक दुकानदार के यहां काम करता हूं। सुबह आठ बजे से रात के नौ बजे तक काम करता हूं। सेठ का सामान ढोना पड़ता है। कोई छुट्टïी नहीं होती है। स्कूल नहीं जा सका। मजूरी से अपना और माता-पिता का पेट पालता हूं। सेठ मुझे दिन में खाना देता है। चाय पिलाता है और 20 रुपए रोजाना देता है। मेरे जैसे कई टाबर (बच्चे) कोटड़ा में काम करते हैं।''
इस कहानी के साथ-साथ 'बाल श्रम' की एक और कहानी का भी पता चला। कोटड़ा कस्बा 'काली सिंध' नदी के किनारे बसा हुआ है। यह नदी कोटड़ा और गुजरात के बीच बहती है। मफलों बहकर यह नदी साबरमती में समा जाती है। सीमांत क्षेत्र होने के कारण गुजराती भाषा की छाप यहां देखी जा सकती है। गुजरात नंबर प्लेट के अनेक वाहन कोटड़ा में देखे जा सकते हैं। एक मायने में क्षेत्र के भीलों की अर्थव्यवस्था गुजरात से भी जुड़ी है। नदी के दोनों छोर के लोगों की आवाजाही रहती है। काम धंधा चलता रहता है। गुजरात में कपास की खेती प्रचुर मात्रा में होती है। कपास के फूल तोडऩे के लिए कोमल उंगलियों को काफी उपयोगी माना जाता है। जाहिर है, कपास की खेती में 'बाल श्रमिकोंÓ की काफी खपत है। इस खपत को कोटड़ा क्षेत्र के आदिवासी बाल श्रमिकों से पूरा किया जाता है। बच्चों के माता-पिता गुजरात के धनी किसानों या श्रम ठेकेदारों से अग्रिम धन ले लेते हैं और अपने बच्चों को स्कूल के बजाए उनके हवाले कर देते हैं। ऐसे बच्चों से खेतों में हाड़-तोड़ श्रम लिया जाता है। उनका बचपन, किशोरपन जल्द ही लुप्त हो जाता है।
सम्मेलन में मौजूद जिलाधीश ने इस बाल श्रम के बारे में स्वीकार भी किया। उन्होंने यह भी बतलाया कि इसकी रोकथाम के कई उपाय किए गए हैं। लेकिन धनी किसान व ठेकेदार भी कम चालाक नहीं हैं। उन्होंने सस्ती दरों पर बाल श्रम का शोषण जारी रखने के लिए ऐसी तरकीब ईजाद की है कि हमारा प्रशासन भी लाचार है। अब ये किसान गरीब भफलों से कोटड़ा में ही कपास की खेती करवाते हैं। भफलों के खेतों को इस्तेमाल में लाया जाता है। जब कपास की फसल तैयार हो जाती है तब आदिवासियों के बच्चों को इस काम में जोत दिया जाता है। अपने ही खेत पर काम करने से बच्चे को कैसे रोका जा सकता है? इस प्रकार 'बाल श्रमÓ इस क्षेत्र में मौजूद है। फिर भी प्रशासन इस नई समस्या के हल का उपाय भी तलाश रहा है। जिलाधीश ने चर्चा में यह भी माना कि इस क्षेत्र में स्कूलों की हालत ठीक नहीं है। शिक्षक गायब रहते हैं। वैसे 51 फीसदी शिक्षकों और 25 फीसदी प्रिंसीपलों का अभाव इस इलाके में है। इस जानकारी से सतह के नीचे की सच्चाई स्वत: स्पष्ट है। जहां 'बाल श्रमिक' हैं, वहीं 'ड्राप आउट' भी रहेंगे ही। दोनों समस्याओं का संबंध निर्धनता व लाचारी से है।
1978 में कोटड़ा और झाड़ोल क्षेत्रों में 'हाली प्रथा' (बंधक श्रमिक प्रथा) काफी प्रचलित थी। राष्ट्रीय श्रम संस्थान द्वारा आयोजित 'चेतना निर्माण शिविर' में 50-60 हालियों ने भाग लिया था। वे महाजनों, सूदखोरों, जमींदारों के बोझ तले दबे थे। क्षेत्र में काफी भूमिहीनता थी। विभिन्न हथकंडों से गैर-आदिवासियों के हाथों में भफलों की भूमि खिसक जाया करती थी। आज इस स्थिति में सुधार माना जाता है। हाली प्रथा पर अंकुश लगा हुआ हैपर यह पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाई है। घंटों चले इस सम्मेलन में आदिवासियों ने मंच से अपने शोषण के नए-नए रूपों की शिकायतें भी सामने रखीं। इन शिकायतों में वन अधिकार कानून, 2006 व 2008 के क्रियान्वयन में व्याप्त भ्रष्टाचार; आदिवासियों को वनभूमियों का पट्टïा न देना; लघु वन उपजों पर डाका; बाहरी ठेकेदार व्यापारियों व कर्मचारियों द्वारा लूट-खसोट; मिलीभगत से कृषि व वन उपज का कम मूल्य लगाना; महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी रोजगार योजना में व्याप्त फर्जीवाड़ा व भेदभाव; सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दुरुपयोग; दबंगों द्वारा इसका दोहन और गरीबों को लाभ से वंचित रखना; राशन कार्डों में मनमानी व घूसखोरी; प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से डॉक्टरों और स्कूलों से शिक्षकों का गायब रहना; स्कूल भवनों की कमी; फॉरेस्ट गार्ड, सिपाही, राजस्व अधिकारी का आतंक; स्वच्छ पेय जल की कमी; लिंक रोड का अभाव; अंधाधुंध शराब बिक्री; नशीले पदार्थों का बोलबाला; ऋण ग्रस्तता व सूदखोरी; काम का अभाव जैसी पीड़ाएं शामिल हैं।
सम्मेलन में आदिवासियों की आत्मलोचनात्मक दृष्टि के भी दर्शन हुए। जहां प्रतिभागियों ने शासन-प्रशासन की तीखी आलोचना की, वहीं अपने समाज में व्याप्त बुराइयों को लेकर समाज-नेतृत्व की भी खिंचाई की। इन बुराइयों में बहुपत्नी प्रथा, बाल-विवाह, डाकण-डायन, चुड़ैल, स्त्रियों का शोषण, मौताणा (किसी के असामयिक ढंग से मरने पर सामूहिक भोज लेना), शराब खोरी, दापा (वधू मूल्य), अशिक्षा व अन्य पिछड़ापन जैसी घटनाएं शामिल हैं। 1978 के चेतना शिविर में भी आदिवासियों ने अपने आंतरिक (समाजगत) और बाहरी शत्रुओं की पहचान की थी। संतोषजनक बात यह है कि यह चेतना जीवित ही नहीं है बल्कि इसमें नए आयाम भी जुड़े हैं।
सरकार और योजना चिंतकों को याद रखना चाहिए कि विगत तीन दशकों में विकास एवं आधुनिकीकरण के पैमाने बदले हैं। इस क्षेत्र के उत्पीडि़त लोगों में नई चेतना व आकांक्षाएं अंकुरित होने लगी है। अब ये अपने परिवेश जगत की शहरी जीवन से तुलना करने लगे हैं। 1978 में आज जैसी कई शिकायतें और मांगें नहीं थीं। पीड़ाएं सीमित थीं। पर आज ऐसा नहीं है। इनमें विवेचनात्मक व तुलनात्मक बोध जन्मा है। यह एक सकारात्मक परिणाम है। इसके साथ ही यह एक सार्विक प्रक्रिया भी है। इस प्रक्रिया के प्रभावों को छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के दूर-दराज आदिवासी अंचलों में भी देखा जा सकता है। निस्संदेह इस क्षेत्र के आदिवासियों की तुलना में झारखंड, उड़ीसा, बस्तर जैसे इलाकों के आदिवासियों का शोषण-उत्पीडऩ कई-कई गुना अधिक है। वहां खनिज व वन संपदा का दोहन भी निर्ममता के साथ हुआ है इसीलिए वहां अंतर्विरोध अधिक गहरे व पैने हैं। यही कारण है कि वहां अंतर्विरोधों के वैज्ञानिक समाधान के लिए संघर्ष भी है। वहां के अरण्य सुलगे हुए हैं। पर यहां शांत हैं। लेकिन ये कभी अशांत नहीं होंगे, यह कौन दावा कर सकता है।
समयांतर से साभार
3 टिप्पणियां:
बेशक कोटड़ा के बहाने एन.जी.ओ> की भूमिका पर बात हुई है पर इसे उत्तराखण्ड के भीतर काम कर रहे तमाम ऎसे ही संगठनों की भूमिका को भी समझने का रास्ता मिलता है।=== विजय गौड़
Tahira Hasan on fb---
great article it is fact that not all but most of NGO are modernday missionaries who have come to take ugly edge of imperialism and difuse political anger
http;//shayaridays.blogspot.com
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