12 जून 2010

हिन्दी साहित्य में जातियों का दबाव- बोधिसत्व के लेख की तीसरी क़िस्त

इस लेख की पिछली कड़ियों में बोधिसत्व ग़ुलामी के दौर के साहित्य की प्रवृतियों और उनके स्रोतों की तलाश की कोशिश की थी। इस कड़ी में वह जाति की भूमिका पर कुछ सवाल खड़े कर रहे हैं। भारतीय समाज में जाति एक महत्वपूर्ण सच्चाई रही है और इससे कोई इन्कार नहीं करता। लेकिन विमर्शों के जोश में कई बार इसे एकमात्र और सबसे बड़ी सच्चाई बनाकर भी पेश किया जाता है…देखना होगा कि यह कितना 'सच' है।

(चार)

जिस साहित्य के अतीत में जातियों का दबाव लगातार बना रहा हो। अधिकतर लेखक सवर्ण या अगड़ी जाति से आते रहे हों और आज भी मुख्यधारा के लेखन और चिन्तन पर उसी खास तबके का कब्जा हो। जिसमें आज तक औरते आजाद नहीं हैं। उन्हें शिक्षा का कोई हक नहीं है अशिक्षा आज भी जहाँ व्याप रहा है। उस समाज से उपजा लेखक कितना आगे जा सकता है। ऐसे समाज से निकले लेखक से बहुत आशा रखना उचित नहीं है। मैं साफ-साफ कहना चाहता हूँ कि आज भी हिंदी कविता और साहित्य में अगड़ी जातियों और उच्च वर्ग  से आए लेखकों का दबदबा है। इस तबके के लेखकों का दायरा और मानसिक बनावट बहुत सीमित या कहें कि अघाया हुआ है। इनके लिए लेखन एक करियर है आगे बढ़ने और समाज में रुतबा हासिल करने का एक रास्ता है। कवि कहलाने से समाज में मान सम्मान मिलता है सो अलग। जो कवि अगड़े तबकों से नहीं आते उनके लेखन पर भी बहुत अधिक दबाव है। साहित्य के बड़े गोल ने छोटे गोल के लोगों को घेर रखा है। इस बड़े गोल के लिए कविता खेल है। कोई जीवन मरण का प्रश्न नहीं है। कहीं नहीं जाना है कोई सच कोई यथार्थ का वर्ण नहीं करना है बस खेल कर समय बिताना है। एक अन्तायक्षरी है इस तबके से उपजे लेखकों के लिए।

मैं अपनी बात दो उदाहरणों को सामने रख कर करना चाहूँगा। यदि भारत भूषण अग्रवाल सम्मान को हिंदी कविता का प्रतिनिधि सम्मान माना जाए और उस सम्मान से पुरस्कृत कवियों को प्रतिनिध कवि मान जाए तो भी पता चल सकता है कि किस कदर हिंदी कविता पर एक खास प्रभु वर्ग का कब्जा है। और इसी के चलते हिंदी कविता इतनी एकांगी और निरस और दोहराव का शिकार है। यहाँ जिन जातियों के रचनाकार सबसे मेधावी रचनात्मक दिख रहे हैं वे हैं ब्राह्मण, कायस्थ और क्षत्रिय । घूम फिर कर इन्हीं तीन को भारत भूषण सम्मान मिला है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि यही तीन अगड़ी जातियाँ देश की रचनात्मकता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।

30 सालों के पुरस्कार में कोई कवि दलित नहीं हैं। कोई मुसलमान नहीं है। कोई अछूत जातियों से नहीं हैं। आर चेतन क्रांति जैसे दो एक कवि जो पिछड़ी जातियों से हैं उनके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हिंदी साहित्य में हर तबके के लेखक सक्रिय हैं। और जिस भाषा साहित्य की मुख्य धारा में हर तबके से लेखक न हों उसका दायरा संकुचित होना ही है।

माना कि मान्य आलोचकों और पुरस्कार दाताओं के पैमाने पर पिछड़ी जातियों के साहित्यिक सरोकार उतने सुघड़ नहीं हो सकते हैं। लेकिन उनमें लोकगीत रचने की शक्ति तो अभी भी है। उनके लिए साहित्य के द्वार क्यों नहीं खोले जाते । क्यों नहीं लोक और शास्त्र का एक साहित्य संगम हो। किंतु नहीं ऐसा होते ही एक खास तबके का बर्चस्व टूटेगा और खास तरह की सजी सवरी कविता का साम्राज्य बिखरेगा। तो पिछड़ों के लोक विधाओं के लिए कैसा भी समादर हिंदी साहित्य में नहीं हुआ न होगा और वे विजन वन बल्लरी पर जैसी कोमल कान्त पदावली तक अपने संस्कार नहीं विकसित कर पाएँगे। फिर उनके लिए साहित्य के दरवाजे अतीत में बंद थे आगे भी बंद रहेंगे। नाई धोबी चमार पासी आज तक हिंदी साहित्य के अंधेरे का ताला नहीं खोल पाए। एक टाट बिछा कर, समता का पाठ पढ़ने पढ़ाने की बात तो आज भी कविता में ही सम्भव है। साहित्य की हवेली में तो प्रभु वर्ग के रचनाकार ही प्रमुख हैं, मुखिया हैं। पिछड़े और दलित तो आज भी हिंदी की मुख्यधारा के साहित्य में पात्र भर हैं कर्ता और सर्जक तो वे आज भी नहीं हैं। और जो हैं सर्जक हैं वे हाशिए पर हैं। मुख्यधारा में तो अगड़ों का ही साम्राज्य है। जबकि लोक गीतों का केवल अनुवाद करके कितने ही हिंदी के कवि बहुत प्रमुखता से अपना स्थान बनाये हुए हैं। जमें हुए हैं।

यह भारत भूषण सम्मान की बात तो एक उदाहरण हैं। सरकारी अर्ध सरकारी संस्थाएँ भी जिनमें साहित्य अकादमी भी आती है इस तरह के भेदभाव से बरी नहीं है। मुझे नहीं पता कि किसी दलित या मुसलमान लेखक को कोई अकादमी सम्मान हिंदी में मिला हो। जब से अकादमी सम्मान शुरू हुए तब से आज तक कोई दलित और मुसलमान लेखक इस कोटि का नहीं हुआ जिसके लेखन को सम्मानित करने का दुस्साहस करती यह संस्था। इससे एक बात तो साफ होती है कि हिंदी साहित्य में एक खास तबके के लोगों को ही लिखने और अपनी बात कहने की सुविधा है। बाकी तबके के लोग यदि नहीं लिखते तो हिंदी के लिए फर्क क्या पड़ता है।


आज यदि जन गणना जाति के आधार पर हो रही है तो समय आ गया है कि लेखकों के जाति का भी निर्धारण हो। पता तो चले कि कौन किस कुल गोत्र का है और अपने साहित्य से वह किस समाज का यथार्थ का वर्णन चित्रण कर रहा है।

3 टिप्‍पणियां:

रूपम ने कहा…

वहुत सही कहा आपने जाती-प्रथा से ग्रसित इस देश में सच्ची कला की कल्पना करना ठीक नहीं है ,
लोगो का लक्ष्य कला का भाव न होकर,प्रसंशा और रुतबे की लालसा है
कहीं न कहीं लोग अपने आप को सह्रदय साबित करना चाहते है चाहे वे हों न ,
और वे हर जगह अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए ही अपना कुछ समय लिखने और कला सम्बन्धी अन्य कामों में लगाते है

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

यानि, पुरस्कार के लिए चयन करने वालों को सबसे पहले कवि या लेखक की जाति देखनी चाहिए उसके बाद ही उसकी रचना पर विचार करना चाहिए...।

यह आरक्षण की चाह कहाँ तक ले जाएगी, यह समझना मुश्किल है। वाह मिसिर जी वाह...। हिट हो गये आप...। बधाई।

बोधिसत्व ने कहा…

सिद्धार्थ जी मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि ऐसा लगता है कि अब तक जाति देख कर पुरस्कार दिए गए हैं। नहीं तो शानी से वजाहत तक और अब्दुल बिस्मिल्लाह से मंजूर एहतसाम तक क्या कोई ऐसा मुसलमाल लेखक अकादमी सम्मान के लायक न था। इसी तरह से दलित लेखकों में ओप प्रकाश बाल्मीकि हों या दूसरे लेखक कहाँ उन्हें मुख्य धारा में सम्मानित किया जा रहा है।
इस उदाहरण को आप कहीं भी गैर सरकारी या सम्मानों की सूची में आजमा कर देख सकते हैं।
aakhir pichle 30 saal men ek musalman ya dalit kavi ko bharat bhooshan samman kyon nahin mila?