04 मई 2010

एक पुराने दोस्त के जन्मदिन पर

(आज सुबह-सुबह आदतन अपने प्रिय ब्लाग कबाड़खाना पर अन्य ब्लागों की नयी पोस्टें देखने गया तो भाई रंगनाथ के ब्लाग पर मार्क्स खींच कर ले गये। आज उनका जन्मदिन है। रंगनाथ ने सुझाया था कि उन सबको जिनकी ज़िन्दगियों पर मार्क्स का असर है, अपने विचार और उन संबधों के बरक्स ब्लाग पर कुछ लिखना चाहिये। आईडिया तुरत क्लिक किया। साथ में बीमारी की वज़ह से ली गयी छुट्टी की सुविधा! तो लिख रहा हूं जुनूं में)

मार्क्स से मेरा परिचय कब हुआ याद नहीं। घर में पापा और उनके दोस्त अक्सर हिन्दू धर्म और ब्राह्मण जाति के गुण गाया करते थे। जिस सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ता था वहां गुरुजी और हेडगेवार परमपूज्यनीय थे…और हम उनके जीवन से प्रेरक प्रसंग याद करते थे। शहर में सब था पर मार्क्स कहीं नहीं दिखते थे। शायद इन्हीं परम विरोधी माहौलों में मार्क्सवादियों को दी जाने वाली गालियां थीं जिन्होंने सबसे पहले मार्क्स से परिचित कराया। और ज़ाहिर था कि मैं भी उन गालियों में शामिल हुआ।

इसी बीच मंडल हुआ फिर बाबरी…नफ़रत और बढ़ी…गालियों की तल्खी भी। अंग्रेज़ी का ट्यूशन पढ़ने श्री डी पी  सिंह के यहां जाता था। वह थे नेहरु के लगभग भक्त और सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष। पढ़ाने से ज़्यादा बतियाते थे। मेरे नाना जी को भी पढ़ा चुके थे। नाना जी थे लोहियाईट। उनके घर ही पहले पहल सारिका, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं से परिचय हुआ और थोड़ा बहुत समाजवाद से। सांप्रदायिकता शब्द भी पहले-पहल नाना से सुना। जब मंडल के विरोध में ज़ेल में था तो पहले नाना और फिर डी पी सिंह सर ने कहा ,'अगर सही तरीके से सोचोगे तो एक दिन तुम्हें महसूस होगा कि तुम ग़लत थे'। ख़ैर, इन दोनों के ज़रिये मुझे एक धुंधला सा प्रतिसंसार तो मिला ही। शायद मार्क्स से गाली विहीन परिचय भी यहीं हुआ पहले-पहल। फिर भी उससे दूरी तो बनी ही रही।

वह शायद 1992 की कोई शाम थी। कुछ लोग हास्टल में मेरे कमरे पर आये। हाथ में एक अख़बार, कुछ पत्रिकायें और चेहरे पर एक अजब सा तेज़। अख़बार ख़रीदा कि उसमें कुछ कवितायें दिखीं (तब तक कविता ऐसे चढ़ चुकी थी दिमाग में कि उसके नाम पर कुछ भी पढ़ने को तैयार था)। फिर उनसे मिलने-जुलने-लड़ने का सिलसिला शुरु हुआ और पता ही नहीं चला कि कब उनके साथ वही अख़बार बेचने लगा, नुक्कड़ सभायें करने लगा और जिस एहसास की बात नाना और सर ने की थी उसे उन दोनों के सामने स्पष्ट तौर पर कह भी आया। डीपी सिंह सर ने कहा था, 'गुरुजी से सीधे मार्क्स! वाह भाई…तुम अपनी ज़िन्दगी का निर्णय ख़ुद लो तो बेहतर बस एक सलाह याद रखना कि पढ़े-लिखे-समझे बिना सिर्फ़ जज़्बात से कोई निर्णय कभी मत लेना'
हम ज़रूर जीतेंगे मेरे दोस्त!

फिर उसके बाद मार्क्स से जैसे दोस्ती हो गयी। मैनिफ़ेस्टो से शुरु हुआ यह सफ़र दर्शन की दरिद्रता, अठारहवीं ब्रूमेर,पूंजी और जाने कहां-कहां तक गया। अब उससे दोस्ती हुई तो उसके दोस्त कैसे दूर रहते तो दुनिया भर के उसके दोस्त मेरे अपने बन गये। शाम उनके साथ गुजरने लगी। मेरे कमरे में वे ऐसे समाये की चारों तरफ़ बस वे ही वे। मां आयी एक बार हास्टल तो कहा ,'अरे एम ए में इतनी किताबें पढ़नी पढ़ती हैं' पापा ने कहा ' जैक आफ़ आल बन रहे हैं तुम्हारे सुपुत्र!' पिता से दूरी बढ़ती ही गयी…

फिर क्या था…संगठन छूटे, दोस्तियां छूटीं, नये बनें पर मार्क्स कभी नहीं छूटा। लड़ाईयां उससे भी ज़ारी हैं, कई जगह उसके हारने पर मेरा पूरा विश्वास है…और इस पर भी कि हारने के बाद भी वह सिगार सुलगाते हुए कहेगा ' ठीक है चलो अब इस आधार पर काम करते हैं'। आज उसके जन्मदिन पर उस पर लिखी किताब उसी को समर्पित। तुम्हारे ही शब्दों में मेरे दोस्त 'कठिनाईयों से रीता जीवन मेरे लिये नहीं'

यहां क्लिक करके पढ़ें उनकी अठारह साल की उम्र में लिखी कविता

14 टिप्‍पणियां:

सागर ने कहा…

ओह बेहतरीन...

कल की पोस्ट भी बांकी है... मैं फिर से आता हूँ...

Rangnath Singh ने कहा…

आपने जो मानीखेज शीर्षक दिया है वही आपकी बात को साफ करने के लिए पर्याप्त था। आगे का विवरण भी बढ़िया रहा।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

हमने कहीं सुना था कि एक खास उम्र पर हर नौजवान की मार्क्स से दोस्ती हो जाती है, लेकिन एक उम्र पार कर जाने के बाद इस दोस्ती में टुटन भी अवश्यम्भावी होती है। शायद जमीनी हकीकतों को देखकर मार्क्स के दिखाये सपनों से उन्हें मोहभंग हो जाता है।

आप का क्या ख्याल है?

Ashok Kumar pandey ने कहा…

सिद्धार्थ जी

मैने जिनसे मार्क्सवाद सीखा वे सब उस उम्र के पार उसी दौर में जा चुके थे लेकिन आज भी उनका बदलाव पर उतना ही विश्वास है। 35 की तो मेरी भी उम्र है।

मार्क्स तब तक आपको दोस्त लगते हैं जब तक बकौल पाश 'ज़िंदगी आपको बनिया नहीं बना देती' और इस बनने का उम्र से कोई रिश्ता नहीं।

rashmi ravija ने कहा…

आपको भी मुबारक हो आपके दोस्त का जन्मदिन...बहुत ही रोचक तरीके से अपनी दोस्ती की दास्तान सुनायी....शुक्रिया

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

ये दोस्त और दोस्ती मुबारक हो। इस दोस्ती का आधार यदि केवल रूमानियत न हो तो जीवन भर जमती है।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

..हम ऊंघते, कलम घिसते उत्पीडन और लाचारी में नहीं जियेंगे हम आकांछा, आक्रोश, आवेग और अभिमान से जियेंगे.
..उम्दा पोस्ट लिखने व एक अच्छी कविता पढ़ाने के लिए आभार.
..मार्क्स तब तक आपको दोस्त लगते हैं जब तक बकौल पाश 'ज़िंदगी आपको बनिया नहीं बना देती' और इस बनने का उम्र से कोई रिश्ता नहीं।
..उम्र से तो नहीं लेकिन जिंदगी का जमाने की आबोहवा से रिश्ता जरूर है अमूमन एक उम्र के बाद हवा छू कर गुजर जाती है, हम समय सीमा तय नहीं कर सकते. हाँ, कुछ लौह पुरुष भी होते हैं .शायद इसीलिए मार्क्सवाद आज भी प्रासंगिक है.

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

हाले-दिल आज कुछ ऐसा ही है इधर भी....जीवन से इस एक दोस्त को निकाल दो तो आदमी होने एहसास जाता रहेगा और कवि होने का भी.

शरद कोकास ने कहा…

भई ये तो हमारे भी दोस्त हैं हाँ दोस्ती इस तरह से नही हुई क्योंकि ये हमारे कमरे में कुछ वरिष्ठ मित्रों के साथ आये थे और ऐसे आये कि अब जाने का नाम नहीं ले रहे बल्कि इनके बहाने अब तुम्हारे जैसे दोस्तों से मुलाकात हो रही है ।

प्रीतीश बारहठ ने कहा…

रंगनाथ जी के ब्लाग पर आपकी टिप्पणी पढ़ने बाद ही इधर आने का निश्चय कर लिया था, देर लगी इसके लिये क्षमायाचना।
"मार्क्स तब तक आपको दोस्त लगते हैं जब तक बकौल पाश 'ज़िंदगी आपको बनिया नहीं बना देती' और इस बनने का उम्र से कोई रिश्ता नहीं।"
पाश की बात सही है लेकिन अंतिम नहीं है अशोक जी !
मार्क्सवादी नहीं होते हुए, असहमतियों के बावजूद मेरी मार्क्स से दोस्ती है और मैं बनिया नहीं हूँ।
आपको दोस्ती बहुत-बहुत मुबारक!

L.Goswami ने कहा…

यह पोस्ट अभी ही देख पाई हूँ ....काफी कुछ मेरी कहानी की तरह है ....

TRIPURARI ने कहा…

लेख और मार्क्स की कविता दोनों बेहतरीन हैं ।
मार्क्स से कहीं ज़्यादा मुझे उसके विचार आकर्षित करते हैं ।

समीर यादव ने कहा…

मार्क्स को अधिक पढ़ा नहीं इसलिए जानता भी नहीं, किन्तु fb पर आपके जुझारू प्रवृत्ति का कायल हूँ...जिस विचारक की दोस्ती से आपकी सोच और व्यक्तित्व में इस तरह के गुण समाविष्ट होते हैं, तो निश्चित रूप से वह अनुकरणीय तो है. दोस्ती मुबारक हो दोस्त.

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

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इमानदार अभिव्यक्ति सुन्दर लगी | इमानदार अभिव्यक्ति स्वयं में सौन्दर्यपूर्ण होती है ! सक्रिया का सौन्दर्य ! शुभेच्छा का सौन्दर्य ! स्वयं के परिष्कार की अदम्य संभावना/सफलता का सौन्दर्य !

जज्बात से न ग्रहण करने की बात डीपी सर ने सही कही है | अफ़सोस यही है कि अधिकांशतः मार्क्सवाद का ग्रहण या विरोध 'जज्बात' के साथ ही होता रहा | फिर संवाद पीछे छूट गया , लकीर-फकीरी आ गयी , तभी किसी मार्क्स ने कहा होगा 'थैंक गोड एम नॉट मार्क्सिस्ट' ! जब मार्क्सिस्ट पर रूढ़ अर्थ चढ़ गया होगा तब ! काश ऐसा कहने वाले तमाम हों : '' लड़ाईयां उससे भी ज़ारी हैं, कई जगह उसके हारने पर मेरा पूरा विश्वास है…और इस पर भी कि हारने के बाद भी वह सिगार सुलगाते हुए कहेगा ' ठीक है चलो अब इस आधार पर काम करते हैं''

बहुत अच्छा लगा पढ़कर !

'जैक आफ आल ..' तो मुझे नहीं कहा किसी ने पर 'आउट आफ कोर्स' और 'आउट आफ ट्रैक' तो खूब कहा गया हूँ :)

मार्क्सवादियों की आरंभिक चीज जिसने सबसे ज्यादा खींचा वह है उनकी तार्किक प्रक्रिया ! जिरह करने की शक्ति ! इस दृष्टि से आज भी प्रेरणा ग्रहण करना अपना सौभाग्य समझता हूँ !