लोकसभा चुनावो के आते ही सियासी जोड़ तोड़ का दौर शुरु हो गया है। वैसे तो चुनावी फ़ायदे नुक्सान और निजी पूर्वाग्रहो को सिद्धान्तों का जामा पहना कर पेश करने के खेल में कोई पीछे नही है, लेकिन प्रकाश करात के नेतृत्व में सीपीएम ने जिस तरह साम्प्रदायिकता को चूँ – चूँ का मुरब्बा बना दिया है वह समकालीन राजनीति के पतनशील चेहरे का सबसे बदनुमा धब्बा है । पूरे चार साल काँग्रेस को इसी मुद्दे पर समर्थन देने के बाद परमाणु क़रार के मुद्दे पर किनारा कसने के बाद अब करात तीसरा मोर्चा बनाने की जुगाड़ में है। इस मोर्चे के लिये जिन दलों से उन्होने दोस्ती गाँठी है, उनका राजनीतिक चरित्र और अब तक का आचरण साम्प्रदायिकता के पूरे विमर्श के ही विरूद्ध रहा है। लेकिन इन्हें सेकुलर होने का प्रमाणपत्र बाँटकर सीपीएम न केवल अपनी विरासत को कलंकित करने पर तुली हुई है बल्कि आमजन के बीच इस मुद्दे की गम्भीरता को भी पूरी तरह से नष्ट कर रही है। बीरबल की खिचड़ी से भी ज़्यादा विचित्र इस मोर्चे में अवसरवाद और भ्रष्टाचार में गले तक डूबे तमाम क्षेत्रीय दल हैं जिन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिये समय समय पर काँग्रेस से लेकर भाजपा तक की निर्बाध यात्रा की है।
इस भानुमति के पिटारे में सबसे महत्वपूर्ण नाम है उत्तरप्रदेश की मुख्यमन्त्री और बीएसपी की सर्वेसर्वा सुश्री मायावती। काशीराम की दलित राजनीति की विरासत सतीश द्विवेदी के सोशल इन्जीनियरिन्ग तक पहुँचा चुकी मायावती एक नहीं कई बार भाजपा के साथ साझीदारी कर चुकीं हैं । समकालीन राजनीति में साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुके गुजरात दंगे के समय भी वह बीजेपी के साथ ही थीं और इन दंगों के नायक नरेन्द्र मोदी पर अमेरिका ने भले ही प्रतिबंध लगाया हो और पूरे देश के सेकुलर समाज ने इसकी निन्दा की हो बहन मायावती उनका चुनाव प्रचार करने बाक़ायदा गुजरात गयी थीं । यही नहीं अपने पूरे शासनकाल में वह हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों के प्रति उदार रहीं हैं । पिछले दिनों कानपुर की घटना हो या फिर गोरखपुर में आदित्यनाथ द्वारा फैलाया गया आतंक, मायावती जी ने कभी भी इसके खिलाफ़ कोई सख्त क़दम नहीं उठाया। उनके राज के दौरान ही राजधानी लखनऊ में ही अन्तर्धामिक विवाह करने वाली लड़कियो के धर्मपरिवर्तन की खबरे भी आयी थी, लेकिन उस दौरान भी कोई कार्यवाही नही की गयी। जहां तक सैद्धांतिक अवस्थिति का सवाल है तो अभी बहुत दिन नहीं बीते जब बसपा कम्यूनिस्टो को नागनाथ बताती थी और सीपीएम इसे एक जातिवादी दल। अब इसमें भ्रष्टाचार के दानवाकार आरोपो को और जोड़ दें तो क़िस्सा पूरा हो जाता है। यहाँ आर्थिक नीतियो का ज़िक्र करना बेमानी होगा।
यही सबकुछ थोड़ा फेरबदल के साथ इस मोर्चे की दूसरी महत्वपूर्ण भागीदार जयललिता के बारे में भी कहा जा सकता है। तमिलनाडु की प्रादेशिक राजनीति के हिसाब से पाला बदलती रहीं जयललिता को अपने शासनकाल मे नर्म हिन्दुत्व तथा भ्रष्टाचार के ही लिये जाना जाता है।
अगर सीपीएम के अन्य दोस्तों चन्द्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक की बात करें तो इन दोनो का रिश्ता बीजेपी से बस अभी अभी टूटा है। बरसों बीजेपी की पीठ पर बैठकर सत्तासुख भोगते हुए उड़ीसा के साम्प्रदायीकरण और इसाईयो पर हमले के मूकदर्शक बने रहे नवीन बाबू चुनाव आते ही नये समीकरणो की तलाश में गठबन्धन से बाहर आ गये और करात साहब ने गोधरा दन्गो के गवाह चन्द्रबाबू के साथ उन्हें भी सेकुलर होने का सर्टिफ़िकेट ज़ारी कर दिया।
दरअसल, ज्योति बसु और सुरजीत के बाद सीपीएम के केन्द्र में आये प्रकाश करात ने सँसदवादी वामपंथी राजनीति को उसकी तार्किक परिणिति तक पहुँचा दिया है। पिछले चुनावों की सफलता के अतिउत्साह को सकारात्मक मोड़ देकर भारतीय राजनीति मे अपना सार्थक हस्तक्षेप बनाने की जगह एक ऐसी दम्भी तथा अहम्मन्य प्रवृति ने ले लिया जिसके अन्तर्गत आत्मालोचना और सिद्धान्तनिष्ठा जैसी चीज़े पूरी तरह बिसरा दी गयी। सारा ज़ोर येन केन प्रकारेण सत्ताकेन्द्रो के क़रीब बने रहने पर केन्द्रित हो गया। लोकसभा में परमाणु क़रार के मुद्दे पर अपने सही रुख के बावज़ूद उसके इसी रवैये के कारण जनता के बीच नकारात्मक सन्देश गया। आमतौर पर यही माना गया कि इसके पीछे करात साहब का व्यक्तिगत अहम है और सिद्धान्त से ज़्यादा इसे उन्होने निजी प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया है और इस पूरे घटनाक्रम में उन्होंने जिस तरह खींचतान मचाते हुए मायावती को प्रधानमन्त्री बनाने की घोषणा कर पूरी पार्टीलाईन ही बदल डाली उससे इसे और बल मिला ।
इस पूरी प्रक्रिया मे साम्प्रदायिकता का तो मज़ाक बना ही है आर्थिक चिन्तन का तो दिवाला ही निकल गया है। देश मे नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के सबसे प्रमुख प्रवक्ता चन्द्रबाबू नायडू और समन्दर का पानी तक बेच डालने वाले नवीन बाबू के सहारे सीपीएम साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ कौन सी जंग छेड़ने जा रही है यह कोई भी समझ सकता है। यहाँ यह बता देना उचित ही होगा कि उड़ीसा मे निजीकरण और कई सेज़ परियोजनाओं के विरुद्ध सन्घर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका मे सीपीएम ही थी। नन्दीग्राम और सिन्गूर मे पहले ही अपनी साख खो चुके करात इस समझौते के बाद किस मुँह से नई आर्थिक नीतियों का विरोध करेंगें ?
तीसरे मोर्चे का चुनाव के दौरान और बाद में क्या हश्र होगा यह तो भविष्य बतायेगा पर इतना तो तय है कि इस परिघटना के बाद सीपीएम की बची-खुची विश्वसनीयता भी धूल में मिल जायेगी और करात शायद इस ताबूत में आखिरी कील लगाने वाले की तरह याद किये जायेंगे।
4 टिप्पणियां:
राजनीति में कोई कील
कभी आखिरी नहीं होती
कील चाहे आखिरी हो
चाहे शुरू हो, चुभती है
यही कील का स्वभाव है
इसीलिए सब देते भाव हैं
आपके लेख से ऐसा ज्ञात हुआ कि बी. जे. पी.का साथ देने वाले लोग साम्पदायिक हैं.'नर्म हिंदुत्व' आदि शब्दों से आपके राजनीतिक झुकाव का आभास हुआ. सेकुलर शब्द का मतलब भी समझ में आ गया. कम्युनिस्टों सहित जो भी दल मुस्लिम वोटों का लालच रखता हो वह सेकुलर. आपने लिखा है:सीपीएम की बची-खुची विश्वसनीयता भी धूल में मिल जायेगी. मतलब सीपीएम की विश्वसनीयता थी!
पाण्डेय जी क्या आपने भूषण की कविताएँ पढ़ी हैं? एक बात जरूर कहूँगा की आपकी लेखनी मैं दम तो हैं.
as far as politics in India, as you say in hindi rajniti rasatal main hai.
बहुत बहुत शुक्रिया आपके सुझाव के लिए! मैंने आपके कहने पर आज क्रीम डालकर आलू बनाया था और लाजवाब लगा!
आपने बहुत ही सुंदर लिखा है! लिखते रहिये और हम आपका ब्लॉग रोजाना पड़ते रहेंगे!
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