खाप पंचायतें: सामाजिक परिवर्तन के अवरूद्ध होने का प्रतीक
-राम पुनियानी
तस्वीर यहां से |
जाति व्यवस्था की पोषक, खाप पंचायतें इन दिनों चर्चा का विषय हैं। इन पंचायतों के सदस्य केवल पुरूष होते हैं और इन पर ग्रामीण श्रेष्ठि वर्ग का कब्जा रहता है। ग्रामवासियों के आपसी विवादों को सुलझाने में इनकी कुछ भूमिका अवश्य है परंतु ये पंचायतें घिसी-पिटी मान्यताओं और दकियानूसी मूल्यों को समाज पर लादने का माध्यम बन गईं हैं। खाप पंचायतें भारतीय संविधान में निहित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों की कट्टर शत्रु बनकर उभरी हंै।
मनोज और बबली की क्रूर हत्या के बाद का घटनाक्रम न केवल विचलित कर देने वाला है वरन् यह भी दर्शाता है कि ग्रामीण भारत आज भी सड़ी-गली मान्यताओं और अप्रासंगिक हो चुकी परंपराओं के चंगुल में फॅसा हुआ है। मनोज और बबली, एक ही गोत्र के थे। अपने विवाह के पश्चात उन्होनें खाप पंचायत के ड़र से अदालत को आवेदन देकर पुलिस सुरक्षा की माँग की। जब वे अदालत से पुलिस सुरक्षा में लौट रहे थे तभी उन्हें रास्ते में रोक कर निर्दयता से मौत के घाट उतार दिया गया। इस मामले में, एक अदालत ने पाॅच हत्यारों को मौत की सजा सुनाई और एक को आजीवन कारावास से दंडित किया। एक अन्य को सात वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई।
इस घटनाक्रम पर शर्मिन्दगी महसूस करने या अपराधबोध से ग्रस्त होने की बजाय, खाप पंचायत ने आक्रामक रूख अख्तियार कर लिया और यह कहा कि मनोज ओर बबली की राह पर चलने वालों का वही हश्र होगा जो इन मासूम प्रेमियों का हुआ। मनोज और बबली ऐसे पहले पति-पत्नि नहीं हैं जिन्हें सगोत्र विवाह करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी हो। अब तक सौ से ज्यादा प्र्रेमी जोड़,े सगोत्र विवाह करने के जुर्म में या तो मौत के घाट उतारे जा चुके हैं या उन्हें अन्य सजाएं भुगतनी पड़ी हैं।
मनोज-बबली के मामले में अदालती निर्णय के बाद, खाप पंचायतों की एक महाबैठक आयोजित की गई जिसमें यह माँग की गई कि “हिन्दू विवाह अधिनियम“ में संशोधन कर, सगोत्र विवाह प्रतिबंधित किए जावें। खाप पंचायतों ने अपना आंदोलन और तेज करने का निर्णय भी किया।
इसी तरह की घटनाएं मुस्लिम परिवारों में भी सामने आती रही हैं। सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ विद्रोह कर आपस में शादी करने वाले प्रेमी युगलों को कत्ल कर दिए जाने के कई उदाहरण मौजूद हैं। इन कत्लों को “आॅनर किलिंग्स“ (इज्जत के लिए हत्या) का नाम दिया गया है। मतलब यह कि या तो लड़के और लड़कियाॅ अपने समुदाय/परिवार द्वारा निर्धारित मनमाने नियमों के अंतर्गत अपने जीवनसाथी का चुनाव करें या फिर परिवार या समुदाय की “इज्जत“ की खातिर मौत को गले लगाने के लिए तैयार रहें। इस तरह की घटनाएं पाकिस्तान में भी होती रही हंै। वहाॅ के सामंती समाज में सामाजिक रूढ़ियां और ज्यादा कठोर हैं।
ये घटनाएं पिछले तीन दशकों में जाति व्यवस्था के और कठोर तथा क्रूर होते जाने का सुबूत हैं।
ब्रिटिश काल में, स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव में जाति व्यवस्था के बंधन ढीले होने शुरू हुए थे। राष्ट्रीय आंदोलन और विशेषकर महिलाओं और दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए समाज सुधारकों द्वारा प्रेरित किए जाने से सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई। उन दिनांे समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, डाॅ अंबेडकर, राजा राममोहन राय और महात्मा गांधी समेत अनेक समाज सुधारकों ने विरोध किया और उनके खिलाफ लड़ाई लड़ी। फुले-अंबेडकर ने इन कुप्रथाओं के खिलाफ व्यापक जनसंघर्ष छेड़ा। अन्य समाज सुधारकों ने भी अपना-अपना योगदान दिया और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को व्यापक आधार और गति प्रदान की।
बेहतर तो यह होता कि इन सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ भू-सुधार भी होते और मुल्ला-मौलवियों व पंडितों की भूमिका, नागरिकों के निजी धार्मिक जीवन तक सीमित हो जाती। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ।
राष्ट्रीय आंदोलन ने इन मुद्दों की ओर समाज का ध्यान कुछ हद तक आकर्षित किया। भारतीय संविधान में इस संबंध में स्पष्ट प्रावधान किए गए। औद्योगीकरण और षिक्षा के प्रसार के साथ, जातिगत और लैंगिक असमानताओं में कमी आने लगी। पुरातनपंथी रीति-रिवाजों और परंपराओं का जोर कम होने लगा। महिलाएं शनैः-शनैः सामाजिक जीवन में भागीदारी करने लगीं और दलितों की स्थिति में भी सुधार आया। परंतु इन सब परिवर्तनों की गति उतनी तेज नहीं थी जितनी कि होनी चाहिए थी।
सन् 1980 के दषक से यह प्रक्रिया धीमी पड़ने लगी। राम मंदिर आंदोलन और वैष्विकरण के कुप्रभावों से सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया रूक सी गई। मंदिर आंदोलन अपने साथ सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं का जो बंडल लाया था, उसने परिवर्तन की प्रक्रिया की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए। इस दौरान महिलाओं और दलितों पर अत्याचार बढ़े। देवराला में रूपकंवर नामक महिला को उसके पति की चिता पर जिंदा जला दिया गया। भँवरी देवी कांड हुआ। भारत की “गौरवशाली परंपरा“ के नाम पर, सांस्कृतिक आतंकवाद शुरू हो गया, जिसकी प्रमुख शिकार महिलाएं और दलित बने। अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा बढ़ी।
डाॅ. अंबेडकर ने “हिन्दू कोड बिल“ का जो मसौदा तैयार किया था, उसमें महिलाओं को समानता और स्वतंत्रता देने के पर्याप्त प्रावधान थे। परंतु इस बिल को पारित करने के पहले उसमें इतने संशोधन कर दिए गए की वह अपने उोद्देश्य में सफल नहीं हो सका। हिन्दू समाज के परंपरावादी तबके के दबाव में ये संशधन किए गए। पंडित नेहरू ने कहा कि यद्यपि भारतीय संविधान प्रगतिषील है तथापि भारतीय समाज दकियानूसी परंपराओं के चंगुल में फंसा हुआ है। ऐसी उम्मीद थी कि जैसे-जैसे राष्ट्रीय लक्ष्यों और राष्ट्रीय आदर्षों का सम्मान व प्रभाव बढ़ेगा, दकियानूसी परंपराओं और सोच का शिकंजा कमजोर पड़ता जाएगा।
इस समय हम देख रहे हैं कि भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया लगभग अवरूद्ध हो गई है। इसका मुख्य कारण है धर्म की राजनीति का सांस्कृतिक पैकेज। यद्यपि ऊपरी तौर पर वे अल्पसंख्यकांे को निशाना बनाते हैं तथापि उनका असली एजेन्डा, महिलाओं और दलितों का दमन है। वे इन दोनों वर्गों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते।
खाप पंचायतें वयस्कों के चुनने के अधिकार पर तो चोट कर ही रही हैं, वे महिलाओं के जीवन को नियंत्रित भी करना चाहती हैं। यही पितृसत्तात्मक राजनीति का केन्द्र बिंदु है। धर्म की राजनीति करने वाले, महिलाओं के जीवन पर नियंत्रण करने को राष्ट्रवाद और गौरवषाली परंपरा बताते हैं।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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